जवाहरकिरणावाली ३२ वीं किरण | Javaharkiranawali 32 Vi Kiran

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Javaharkiranawali 32 Vi Kiran by जवाहरलालजी महाराज - Jawaharlalji Maharajजैनाचार्य श्री - Jainacharya shri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(४) साधना फे लिए कमर कसकर खड़ा हुआ वेचारा अज्ञानी जीव क्या कर सकेगा ! और, वह कैसे समझ पायगा कि कल्याण क्या और अकल्याण क्या है १ मगर स्मरण रखना चाहिए कि ज्ञान, साधना का एक अंग ही है, सम्पूणं साधना नहीं है । ज्ञान से साधनां के स्वरूप को समा जा सकता है, साधना का लक्ष्य स्थिर किया जा सकता है और मार्ग भी निश्चित किया जा सकता है पर यह तो साधना का प्रारम्भ है, उसकी समाप्ति नहीं है। साधना को परिपूर्ण और सफल बनाने के लिए क्रिया की आवश्यकता अनिवाय है | क्रिया के विना जान लेने मात्र से कुछ हाथ नहीं आता | इसलिए कहा है-- तरियारिरहितं हन्त ! ज्ञानमात्रमनथेकम्‌ । गति बिना पथन्नोऽपि, नाप्नोति पुरमीतितम्‌ ॥ अथात्‌--ज्ञिस ज्ञान के अनुसार अनुष्ठान नहीं किया जाता वह्‌ कोरा ज्ञान नरथक दै-फलप्रद नहीं दै । श्राप किसी नगर मे पहुँचने का मार्ग जानते हैं, सगर चलते नहीं, उस ओर कदम बढ़ाते नहीं--फक्रिया करते नहीं है तो केवल मागं जान लेने मात्र से उस नगर में नहीं पहुँच सकते । इस प्रकार क्रिया, ज्ञान पर निर्भर है, मगर ज्ञान की सार्थकता क्रिया में है। इसी कारण शास्त्र स्पष्ट रूप से यह घोषणा करता है कि वही ज्ञान सफल रौर सार्थक है जो आचरण को जन्म देता है । नयविरेष की अपेता तो जिस ज्ञान से चारित्र का उद्भव तरीं होता, बह ज्ञान, ज्ञान ही नहीं है--अज्ञान ই। इससे सहज ही सममा जा सकता है कि जैनधमम में चारित्र को कितना अधिक महत्त्व दिया गया है। चारित्र की बदौलत ही साधु




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