समता | Samta
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
316
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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दशशश्हूर - स्रनद्धर्
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समता-दशंन
[] आचाये श्री नानालालजी स० सा०
सुमति चरण कज आतम अर्पणा, दर्षणण जेम अविकार । सुजानी
मति तपण वहु सम्मत जारिए, परिसर्पेणा सुविचार ॥ सुज्ञानी
वहिरातम तजि अन्तर आतमा, रूप थई स्थिर भाव । सुनानी
परमातम नु' हो आतम भावनु आतम श्रर्पण दाव ।। सुजानी
इस विशाल विराट विश्व को देखने का प्रसंग है। देखना किससे ?
दृश्यत्ते अनेन इतिदर्शन: जिससे देखा जाय वह दर्शन की संज्ञा पाता है याने कि
दृश्य देखना । जिसके माध्यम से देखने का प्रसंग उपस्थित हो श्रथवा ह्यते
अस्मात् जिससे विलग रूप में देखने का प्रसंग हो या दृश्यते अस्मिनू--जिसके
भीतर में देखने का प्रसंग हो-तो ऐसा होता है दर्णन ।
दर्शन की दार्शनिक दृष्टि से व्याख्या का इस वक्त विशेष विवेचन नहीं
किया जा रहा है, केवल सांकेतिक भाषा में कुछ अभिव्यक्ति है। जहाँ सामान्य
जन का ध्यान, हृष्टि पर जाता है, कारण कि देखने का अभ्यास नेत्रों को होता
है. वहाँ गहराई की वात आगे है। ये नेत्र माध्यम है--साधन है, लेकिन देखने
वाला नेत्नों के पोछे है । जिससे देखा जाता दै. वह् देन्वने वाना तन्व न्वयं अपने
ग्रापवगे भी जानता है योर दृश्य पदार्थ को भी वह समभता हे। थे दोनों गग्ग
जिसमें हो, वह एक दृष्टि से दर्णन है । उसको देखने का
दे ट यत्न टता. कहां
दर्मन শত ग्राभामित होंता है । दोनो के पीडे विनेप
এন শত পালাল হালা লি হাল क पद्ध तर
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