तत्त्वदर्शिनी | Tatva Darshini

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Tatva Darshini by स्वतंत्रानन्द जी महाराज - SwatantraaNand JI Maharaj

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about स्वतंत्रानन्द जी महाराज - SwatantraaNand JI Maharaj

Add Infomation AboutSwatantraaNand JI Maharaj

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
>» 4 ९) दूकरे सवम्न में मगदर को एक मक्ता साता का दर्शन हुआ और मगवाव्‌ का श्रादेश मिला कि “प्रगहर जाओ, वहाँ तुम्दारा कल्याण होगा। भी स्व्रामीजी के मगदर जाने पए लत्र उस साता का साछ्ात्‌ दर्शन मिला वो उप्तका वही रूप देखने में थ्रावा जैशा कि स्वप्नावस्था में दिल्लताई पड़ा या | उस मावा के दर्शन से मी बुद्धि में शान्ति आई | उन दिनो मदात्मा गन्धको ख्याति सम्पूर्ण देश में फैलों हुई थी । उनकी लोक-प्रस्याति फो सुनकर थी स्वामीला श्रात्म-शान्ति की प्रबल बिज्ञाद्य लेकर सत्यह्ञ।र्थ सन्‌ १६४७ ई० में उनके धास दिल्ली यये श्रौर बिदलाभयन में स्फर उनवे श्रात्म.कल्याण फो उत्कट श्रमिलापा प्रकट की 1 मद्दात्मा ली ने इन्हें निष्काम फर्मयोग में प्रद्दत करना चाहा; फिन्हु श्रनेक प्रशोचर के चाद भी समुचित समाधान प्राप्त न दो सका | इसी समय घर से पत्र द्वारा पृत्रोसचि फा शुभ यमाचार आप्त हुआ | লি पुत्र की प्राप्ति के लिये बड़े बड़े यर्शों श्रौर तर्पों का अनुष्ठान किया बाता है, घो पुत्र लोफ परलोफ के सुख का उत्तम साधन सममा घाता है, जिसके अभाव में एय्वी का राष्य, मोगैश्वर्य एवं श्रतुल सम्पत्ति सम्पन्न जोबन भी दूमा सा प्रतीत होता ६, [जिसङ़े बिना माता-पिता फा दय नित्य-निरन्तर शोकामनि है उनन्‍्तप्त रदता है, उसी डुलेभ सन्तानोत्नत्ति के शुभ समाचार से णहाँ थी स्वरामीनी को झ्ाहादित होना चाहिये था, यर्दी यइ समाचार इनके वैराग्य का प्रधान कारण बनकर उपध्यित हुआा। पूर्व प्रदल संस्कारामुसार इन्हें विवेक दृष्टि मिली और श्रन्तःश्स् मे वैरयस्पामि प्रज्वलित दो उठी। তত समय इन्होंने विचार किया कि 'झब तक तो केवल ख्री ही प्रघेज् वेड़ी के रूप में थी, पर श्रय माया ने मोह फा एक इढ़ पन्‍्दा और भी उपस्यित कर दिया! मोद्ध-मार्म के प्रतिबन्धक माया-ममताके इन प्रतज्ञ फर्दों से अपनी अझवश्यमेत ছা झरनी चाहिये । # जिनले श्रनितेन्दरिय, षर्‌ यदस्य मे श्रारक्त, माया-ममदाषफी पोषीमें के हुये प्रदति मार्गावलम्दी पुदप अपने फो छुड़ाने का साहस भी मह्दी फर पाते, उन्दीं दुष्त्यज्य सख्ो-पुत्रादि को छणमर में प्रज्वलित वैशाग्याग्रि में भन्‍्म कर शोक मोद्वात्मक दुःसस्तरूप रंसार से उपरत हो निद्चिमा्ं के पथिक वन्‌ गये । इन्होंने स्रीयुक्ष धर-दइस्थी तथा सरडारी इन्सपेक्टरी-पदादि संस्व का परित्याग कर दृदयेश्वर भयवान्‌ श्रौदृष्णचन्द्र को ही गुर, आत्मा एवं इंश्र सपमर उनसे उपदिष्ट--




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now