साधना साहित्य | Sadhana Aur Sahitya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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साधना ओर साहित्य [ ७ इन सम्प्रदायों के प्राचार्यों ने साधना सम्बन्धी प्रचुर साहित्य प्रस्तुत किया है। बैभाषिक सम्प्रदाय षा सर्वमास्य ग्रन्थ 'अभिधर्मन्नान प्रस्थान झास्त्र' है। इसके प्रतिरिक्त अभिधर्मकोश', 'कोशकरका', 'समय प्रदीषिका' इस सम्प्रदाय के उल्छेतनीय ग्रन्थ ह । नमे जगत्‌ भोर निर्वाण इत्यादि के महत्वपूर्ण प्रश्तो पर गम्भीरतापुर्बंक विचार किया थया है । सौवरान्तिक सम्प्रदाय के ग्रन्यो में 'विभाषा प्षास्त्रन, 'समयभेदउपरचन चक्र इत्यादि हैं। इनमें काल, ज्ञान, जगत्‌, निर्वाण ऐसे विपयो पर विचार हुआ है। योगाचार सम्प्रदाय के प्रत्वों में मध्यास्तविभद्भ सूत्र, 'अभिसमयासद्भधार', 'सूता- लद्भार', 'महायानपोरिग्रह', 'योगाचार भूमि शास्त्र, 'मुछप्राष्यक कारिका धृत्ति, এসমাগ समुच्चर्य, न्याय विम्दु' फी गणना की जाती है। इनमे प्रज्ञापारमिता, जगत निर्वाण सम्बन्धौ विषयों दी मोमासां की गई है। “विज्ञानवाद' इसकी महत्वपूर्ण उपलब्धि है। माध्यमिक सम्प्रदाय के সমান प्रस्थ 'साध्यधिक शास्त्र , 'चतु; शतक, “जज्ञा प्रदीप, 'माध्यमिकावतार', 'तत्त्वसंग्रह' हैं ॥ इस मत के आचार्यों ने 'शूम्यवाद' की प्रतिप्ठा की 1 सागाजुन इसके भ्रश्यात भाषचाय॑ थे 1९ न्धाय न्यायदर्शनं का विधय न्याय का प्रतिपादन है।/ न्याय का व्यापक अर्थ है-- विभिन प्रमाणो की सहायता से वस्तु तत्व की परीक्षा १२ इन प्रमाणों के स्वरूप के वर्णन करने से तथा इस परीक्षा प्रणाली के व्यावहारिक रूप प्रकट करने से यह दर्शन न्याय-दर्शन के नाम से पुकारा जाता है । प्रमाण की विस्तृत सीमासा करके न्याय ने निन तत्त्वो को खोज निकाला है, उनका अन्य दर्शनों ने भी उपयोग किया ই। भारतीय दार्शनिक साहिद्य न्याय फी ग्रनय-सम्पत्ति विप है । गौतम क ^्यायपूत् इसका प्रमुख ग्रन्थ है। अन्य रचताओं में (तराय टी , न्वाथदूवी निवन्ध , “न्याय मस्जरी', 'स्थाय सार, 'तत्त्त-विस्ताम ग,' “आवोक चिनामणि , 'दीथिति! इत्यादि हैं । उदयनाचायं ने न्याय कुसुमा नेलि' मे ईश्वर की धिद्धि अकाट्य युक्तियों के सहारे को है (३ द्वादश प्रमेय के अनुसार आत्मा सब वस्तुओ का द्रप्टा, भोक्ता झौर ज्ञाता है शरीर भोगो का आधार है। इन्द्रियो के द्वारा आत्मा वाह्म वस्तुप्रो का भो। करता है। भोगों के प्रर्थादि अनेक साधन है। इन्टो का ज्ञान मुक्ति के छिए सहायक है। स्याय- १. भारतीय दर्शन, पू० २२०-२२७॥ २, भारतोप दशन, प° २३्द} ३, भारलीय दर्शन, पृ २६९६1




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