कालिदासकोशः | Thesaurus Of Kalidasa Vol-2

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पदकोश: (सत्र (छव ১:014771771011001 10101101107) 333 'शकन्धु' (शक देश का कुआँ ) और रहट के लिए 'कर्कन्धु' (कर्क देश का कुआओँ, कर्क ईरान के दक्षिण- पश्चिम में था)। ये नाम व्याकरणसाहित्य में सुरक्षित मिलते हें”। 1353 वाम: (द्विवारं प्रयुक्तम) (पू० 10.2.9.11; उ० 35.1.1.1) वाम+सु; संज्ञा; प्रथमा एकवबचन; वामो वामपार्वस्थः (प्रदीपः); वामस्थितः (चरित्र ०); वामभागस्थः; वामस्तु वक्रे रम्ये स्यात्‌ सव्ये वामगतेऽपि च इति शब्दाण्वि (संजी०); वामभागस्थितः, चातकस्य वामभागस्थितौ प्राणस्त्यात्‌; यथा योगयात्रायाम्‌ वराहमिष्टिरः “चुचुन्दरीशुकरिकाथिवालिश्यामागलीपिङगलिकान्यपुष्टाः। वामाः प्रशस्ताः गृहगोधिका च पुंस्का ये तु पतत्रिणश्च।।' इति। तथा महायान्नायाम्‌- न तु भाद्रपदे ग्राह्याः सूकराश्ववृकादयः। ररद्यजागलीक्रोञ्चाः श्रावणे हस्तिचातकाः। ।' इति कालविशोषनिषेधात्‌ कालान्तरे चातकस्वरस्य प्रशस्तत्वम्‌ (विद्युल्लता) ; वामः; देशस्थः (सुवोधा 10); वाम इत्यनेनापि सम्बन्धश्चकारेण द्योतितः। ईदुक्‌ चातकोऽपि शुभशंसी। यदुक्तं तत्र- 'वर्हिणश्चातकाश्चाषा ये च पुंसंज्ञिता खगाः। मृगा वा वामगा इष्यः सैन्यसम्पद्बलप्रदाः। ! ' इति। प्रशस्तः (सुबोधा 10); सव्य (-सुबोधा 35) बाई ओर चातक, मोर, हरिण आदि का आगमन शुभ माना गया है। देखो- वर्दिणस्चातकाश्चाषा ये च पुंसंज्ञिताः खगाः। मृगा वा चामगा हृष्टः सैन्यसम्पद्नलप्रदाः। 1 तथा- कामं वामसमायुक्ता भोज्ये भोगप्रदायिनः। हष्टास्तुष्टिं प्रयच्छन्ति प्रयातुर्मुगपक्षिणः।। परन्तु श्री रामनाथ तकलिङ्धार वामः का अर्थं 'सुन्दर' करते हैं। उनके मत में पक्षियों आदि की दक्षिण में सहर्ष स्थिति ही शुभ होती है। हिन्दुओं के मत में भी साधारणतया वाम भाग में स्थित पक्षी आदि शुभ शकुन नहीं होते । यूनानियों की विचारधारा भी श्री रामनाथ के मतानुसार ही है। परन्तु रूमवासियों के विचार वाम भाग सम्बन्धी पहले मत के समान हैं। दोनों मतों का समन्वय 'वाम:' का “নাহ और सुन्दर' अर्थ करके किया जा सकता है। कम से कम यहाँ पर कालिदास वाम भाग में ही शुभ शकुन मान रहे हैं। यहाँ वाम (बाँयें) ऊरू के फड़कने का उल्लेख इसलिए किया है कि स्त्रियों के शरीर का वाम तथा मनुष्यों का दक्षिण भाग श्रेष्ठ माना गया है। देखिये टीका में दिया गया यह श्लोक-'वामभागस्तु नारीणां पुंसां श्रेष्ठस्तु दक्षिण:। दाने देवादिपूजायां स्पन्देडलंकरणेडपि च।।” और देखिये निमित्तनिदान--'ऊरो: स्पन्दाद्व॒तिं विद्यादूर्वो: प्राप्ति सुवासस:11* 1354 वामपादाभिलायी (उ० 17.3.15.34) वामपाद+अम्‌+अभिलष+णिनि+सु; विशेषण; प्रथमा, एकबचन; वामचरणामिलाषुकः; यथाहं सापराधः पादप्रसादं वाञ्छामि तद्वत्‌ (चरित्र०) ; चरणप्रहारानुग्रहेण तस्य विकासात्‌ (पंचिका); वामपादस्य अभिलाषी। अथवा वामपादम्‌ अभिलषितं शीलमस्य । कविसमय में प्रसिद्ध हे कि अशोक युवतियों के वाये पैर की लात से खिलता हे] तुलना करो-कु० सं० 3.26; मालविका 3.12; वाम पाद्‌ से यहोँ वाम-पाद का प्रहार अभिप्रेत है। “किसी सुन्द्री के वायं पैर के प्रहार से अशोक वृक्ष में फूल निकल पड़ते हैं” यह एक प्राचीन धारणा है। देखिये कुमार० 17.26 (“असूत सद्यः कुसुमान्यशोक




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