राष्ट्रीय कविताए | Rashtiy Kavitay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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राष्ट्रीय कविताएँ लगन (महारथी--जनवरी १९२८) यही दिन था झहींदे कौम ने जव प्राण त्यागा था। यही दिन था हमारा रहनुमा जब हमसे विछुड था। जनाज़ा धूम से उस वीर का हमने उठाया था। चदे वह्‌ देण वेदी पर यदी वर उसने माँगा था। विजय की जुभे घडी थौ वहु उसे हम गम नहीं कहते । बह यादी कौम की श्री हम उसे मातम नही कहते ॥१॥ तपाकर आतमी दोखो ने उसको कर दिया कन्दन। जौ रौ उदट्ढी तो एमी-टो गये दोनो जहां रौशन) धिमा अव आस्मां ने वन गया मल्यागिरी चन्दन | फना ने सोद में केकर वका का सर दिया दामन) झुकाये णीश पहुँचे देव स्वागत हो तो ऐसा हो। बढी देवादड़ूनाएँ उन चरण-कमलो की पूजा को॥रा। सुपथ में कर्मवीरों के लिए झौफो-खत्तर कंसा। जो मरता देश के हित--भोलियो का उसको डर कंसा। न हर्ती टेक वीरो को क्रा कैसी कशर कंसा। जो है आज़ाद फिर उसको ये घर कैसा वो घर कंमा। न ठहरा भीझता का भूत उनके सामने दम भर वनी वह्‌ रास की चुटकी चिता की रूकडियाँ जलकर ॥३॥ अगर है कछाग ईइवर कौ--भुला दे राग दुनियाँ का। अगर कुछ भी वतन का पास है तो कर न गरम जाँका । वहा दे सूं, बहाने दे न छेकिन खून अरमां का। मिठाना जुल्म को शेवा यही है भर्दे मैदाँ का। जो आता है तो बा, ख्ख हुए सर को हवेली पर । परीद अते ई पूना को शटीदो कौ समावौ पर 1४॥




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