आदिकाल के अज्ञात | Adikal Ke Agyat Hindi Ras Kavya

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Book Image : आदिकाल के अज्ञात  - Adikal Ke Agyat Hindi Ras Kavya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६ ) कि जैन मुनि प्रस्तुत करते थे रास! संज्ञा दी जाने लगी । उपदेश रसायन रास में जिनदत्त सूरि के अनेक गेय उपदेश रास बन गये हैं | स्त्री और पुरुषों के एक साथ रास नहीं खेलने के जो उल्लेख मिलते हैं ।१ उनसे यह बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि रास क्रीडा अपभ्रश और अपश्र शेतर कालों में स्त्री पुरुष दोनों में समान उत्साह के साय सम्पन्त होती थी और रास विशेष अवसरों पर जनता उललसित होकर खेलती थी । अ्रतः नृत्य और गीत तत्व रासों में समान अनुपात से ११ वीं शताब्दी तक तो देखने को मिलता है। यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि नृत्य और गीत में से कालान्तर मे रासो में गीत मात्र ही क्यों रह गया ? नृत्य क्रियां क्‍यों शिथिल हो गई ? इसका कारण जेन रासो रचनाशथ्रों के शिल्प का परिशीलन करने पर मिल जाता है । अपश्र शेतर काल में जेन मुनि जिन उपदेशों को देश्य भाषा में जनसाधारण को गा-गा कर सुनाते थे, उनकी रसीली गीति श्रौर चर्चरी संक उपदेशात्मक रचनाए' धीरे-धीरे रास वनती गड्‌ । जैन साधको को ङग प्रधान जीवन बिताने से विशेष उल्लास और राग, रंग, नृत्य, अभिनय से वेराग्य रखना पड़ता था ग्रतः तत्य का तत्व धीरे धीरे उपेक्षित होने लगा । प्रनुश्नू तिबद्ध परम्परा के कारण ये गीतियां इतनी घनीभूत होकर प्रचलित हुईं, कि जन मानस रसमय हो उठा और नृत्य को लोग उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे । ग्रन्यथा कपूर मंजरी के विचित्र वन्ध में ताल, लय, प्रकम्पन कै प्राघार पर नृद्याभिनय करती हई नायिकाग्रों का वर्णन मिलता है ।२ इन नर्तकियों की समवाहु, समाभिमुख आदि अनेक भिन्न-भिन्न मुद्राओं का भी उल्लेख मिलता है।३ वस्तुतः ११वीं शताब्दी तक पहुँचते-पहुँचते रास गेय काव्य” লাগ रह्‌ गया । क्योंकि इन गीतियों श्रौर चर्चरियों को ही जनसाधारण में अत्यन्त श्रधिक प्रच- लित देखकर जेन म्ुनियों ने उपदेश का माध्यम छुना और ये चर्चरियां और गीतियां इतनी अ्रधिक प्रसिद्ध हुई, कि इसके नामों से विभिन्न छन्द विश्येपों का निर्माण हो गया । कालान्तर में चर्चरी और गीत नाम से स्वतन्त्र छन्द ही वन गये । श्रव जनता इन रासो को खेलने की अपेक्षा श्रवण करने में अधिक रस १-देखिएः-ग्रप्र श काच्यत्रयी; श्री लालचन्द भगवान गांधी, पृ० ३६ । २-साहित्य संदेश; जुलाई १६५१, में डॉ० दशरथ श्रोका का 'रासो के श्रर्थ का क्रम विकास'-शीरषक लेख । ३-कंपु र मंजरी; ४।१०-११ का यह्‌ उद्धरणः- समं ससीसा सम वाहुहत्था रेहा विसुद्धा श्रवराउदंति ! पंतीहि दोहि लग्मताल बंधं प्रपरोप्परं साहिमुही हुवंति।




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