भावनाबोध | Bhawnabodh

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Bhawnabodh by श्रीमद राजचंद्र - Shrimad Rajchandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भावनाबोध ३ उसके लिए निरंतर भयरूप ही ह ! अनेक प्रकारसे गूंथ डाले हुए शास्त्रजालमें विवादका भय रहा है। किसी भी सांसारिक सुखका गुण प्राप्त करनेसे जो आनंद समज्ञा जाता है, वह खल मनुष्यकी निदाके कारण भयान्वित्त है, जिसमे अन्त प्रियता रही है वह्‌ काया एक समय कालरूपी सिहके मुखमे जा पडनेके भयसे भरपूर है 1 इस प्रकार ससारके मनोहर परतु चपर सुख-साधन भयसे भरे हुए हैं । विवेकसे विचार करनेपर जहाँ भय है वहाँ केवल शोक ही है, जहाँ शोक हो वहाँ सुखका अभाव है, और जहाँ सुखका अभाव है वहाँ तिरस्कार करना यथोचित्त है। योगीद्र भतहरि एक ही ऐसा कह गये है यह्‌ वातत नही है | कालानुसार सृष्टिक निर्माण समयसे लेकर भतृंह॒रिसे उत्तम, भत हरिके समान ओौर भतृहरिसे कनिष्ठ ऐसे असख्य त्तत्त्वज्ञानी हो गये हैं। ऐसा कोई काछ या आये देश नही है जिसमे तत्त्वज्ञानियोंकी उत्पत्ति बिलकुल न हुई हो । इन त्तत्त्ववेत्ताओने ससारसुखकी प्रत्येक सासग्रीको गोकरूप बताया है, यह्‌ इनके अगाध विवेकका परिणाम है | व्यास, वाल्मीकि, गकर, गौतम, पतंजलि, कपिल और युवराज शुद्धोदलने अपने प्रवचनोमे मामिक रीतिसे और सामान्य रीतिसे जो उपदेश दिया है, उसका रहस्य नीचेके शब्दोमे कुछ आ जाता है :-- “अहो लोगो ! संसाररूपी समुद्र अनंत एवं अपार है। इसका पार पानेके लिए पुरुषार्थका उपयोग करं ! उपयोग करें 11 ऐसा उपदेश करनेमे इनका हेतु प्रत्येक्त प्राणीको शोकसे मुक्त करनेका था | इन सब ज्ञानियोकी अपेक्षा परम मान्य रखने योग्य स्व्॑ञ महावीरके वचन सवत्र यही हँ कि ससार एकांत गौर अनत ोकरूप तथा दु-खप्रद है ।! अहो भव्य लोगो 1 इसमे मधुरी मोहनी न खाकर इससे निवृत्त होवें ! निवृत्त होवें !! महावीरका एक समयमात्रके लिए भी संसारका उपदेश चही




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