तत्व चिंतामणि [भाग - १] | Tattva Chintamani [Bhag - 1]

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Tattva Chintamani [Bhag - 1] by हनुमान प्रसाद पोद्दार - Hanuman Prasad Poddar

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He was great saint.He was co-founder Of GEETAPRESS Gorakhpur. Once He got Darshan of a Himalayan saint, who directed him to re stablish vadik sahitya. From that day he worked towards stablish Geeta press.
He was real vaishnava ,Great devoty of Sri Radha Krishna.

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ज्ञानकी दुर्लमता' १७ इस व्रिपयमे मौन ही रहना चाहिये । इन सव॒ वातोपर विचार करनेसे यही सिद्ध होता है कि महापुरुपके ल्यि जानी व अन्नानी किसी भी चन्दका प्रयोग उसके अपने मुखस नही वनता । इतना होनेपर भी महापुरुष यदि अज्ञानी साधककों समझानेके लिये उसे ज्ञानोपदेश करते समय उसीकी भावनाके अनुसार अपनेमे जानीकी कल्पना कर अपनेको ज्ञानी झब्दसे सम्बोधित कर दे तो भी कोई हानि नहीं । वास्तवमे उसका यों कहता भी उस साधककी दृष्टिमि ही हैं और ऐसा कहना भी उसी साधकके सामने सम्भव है जो पूर्ण श्रद्धालु और परम विश्वासी हो, जो महापुरुषके गब्दोंकों सुनते ही स्वयं वैसा बनता जाय और जिस स्थितिका वणन महापुरुष करते हो उसी स्थितिमे स्थित हो जाय । इसपर ऐसा कहा जा सकता है कि श्रद्धा और विश्वास तो पूर्ण है, परन्तु वैसी स्थिति नही होती, इसके लिये वह वेचारा श्रद्धालु साधक क्या करे ? यह ठीक है, परन्तु साधकके लिये इतना तो परमावश्यक्र है कि वह श्रवणक्रे अनुसार ही एक ब्रह्ममे विश्वासी होकर उसीकी प्राप्तिके लिये पूरी तरहसे तत्पर हो जाय, जबतक उसे प्राप्ति न हो तवतक वह उसके छिय्रे परम व्याकुछ रहे । जंसे किसी मनुष्यको एक जानकारके द्वारा उसके घरमे गड़ा हुआ धन मालूम हो जानेवर वह उस्ते खोदकर निकालनेके लिये व्याकुल होना है यदि उस समय उसके पास बाहरके आदमी बैठे हुए हों तो वह सच्चे मतसे यही चाहता है कि कब ' वे लोग हटे, कब्र मैं अकेला रहु। और कब उस गड़े हुए লক্ষী निकालकर हस्तगत कर सकूं। इसी प्रकार जो साधक यह




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