कठोपनिषद प्रवचन - द्वितीय प्रवाह | Kathopanishhda Pravachana - Dwitiya Prawah
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
24 MB
कुल पष्ठ :
776
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about अखंडानंद सरस्वती - Akhandanand Saraswati
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)तमेव विद्धान् अमूत इहं भवन्ति \
ओर
तमेवं वेदानुवचनेन ब्राह्यणाः विविदिहान्ति ।
तुम हमेशा यह मन्त्र पढ़ते हो :
वेदाहमेतं पुरुषम् महान्तम् आदित्यवर्ण तमसः परस्तात् ।
ओर
तदेब विदित्वा अति-सृत्युमेति ।
मृत्युम् अत्येति >अम्ृतों भवति। उसे जानकर अमुत हो
जायगा । किसको ? मन्त्रके पूर्वाद्धेमें जिसको 'एतम्' कहा गया है
उसीको उत्तराद्धमें तम' कहा गया है । अर्थात् जो 'तत्” पदका
अर्थ है, परोक्ष वही एवम पदका अथं है अपरोक्ष । अर्थात्
आत्मा-परमात्माकी एकत्ताको जानकर मृत्युका अतिक्रमण होता
है। जड़में मृत्यु है, उसका अतिक्रमण हो जाता है ओर दुःखमें
मृत्यु है, उसका भी अतिक्रमण हो जाता है। हम देश-काल-वस्तुकी
परिच्छिन्नतासे, असत्-जड़-मृत्युसे मुक्त हो जाते हैं ।
वेदान्तविचारमें अमृत्तत्वकी प्राप्ति केसे होती है ? यह अमृत
क्या है ? विषयीलोग कहते हैं--“जब हम विषयमोग करते हैं, तब
विषयको निचोड़कर उसमें-से रस-स्वाद और सुख पाते हैं।' वे
कहते हें--पहाँ हम धर्म करते हैं तो परिश्रमप्ते उपाजित धर्म-
विश्राम इन दोनोंके द्वारा एक नवीन अमृतको उत्पन्न करते हैं
ओर उसे स्वग॑में पते हैँ । उपासक रोग कहते है--'हम भावनासे
एक अमृत उत्पन्न करते हैँ गौर उसका आस्वादन करते है ।'
कठोपनिषद् : १ ७३७
४७
User Reviews
No Reviews | Add Yours...