कठोपनिषद प्रवचन - द्वितीय प्रवाह | Kathopanishhda Pravachana - Dwitiya Prawah

Kathopanishhda Pravachana - Dwitiya Prawah by अखंडानंद सरस्वती - Akhandanand Saraswati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तमेव विद्धान्‌ अमूत इहं भवन्ति \ ओर तमेवं वेदानुवचनेन ब्राह्यणाः विविदिहान्ति । तुम हमेशा यह मन्त्र पढ़ते हो : वेदाहमेतं पुरुषम्‌ महान्तम्‌ आदित्यवर्ण तमसः परस्तात्‌ । ओर तदेब विदित्वा अति-सृत्युमेति । मृत्युम्‌ अत्येति >अम्ृतों भवति। उसे जानकर अमुत हो जायगा । किसको ? मन्त्रके पूर्वाद्धेमें जिसको 'एतम्‌' कहा गया है उसीको उत्तराद्धमें तम' कहा गया है । अर्थात्‌ जो 'तत्‌” पदका अर्थ है, परोक्ष वही एवम पदका अथं है अपरोक्ष । अर्थात्‌ आत्मा-परमात्माकी एकत्ताको जानकर मृत्युका अतिक्रमण होता है। जड़में मृत्यु है, उसका अतिक्रमण हो जाता है ओर दुःखमें मृत्यु है, उसका भी अतिक्रमण हो जाता है। हम देश-काल-वस्तुकी परिच्छिन्नतासे, असत्‌-जड़-मृत्युसे मुक्त हो जाते हैं । वेदान्तविचारमें अमृत्तत्वकी प्राप्ति केसे होती है ? यह अमृत क्‍या है ? विषयीलोग कहते हैं--“जब हम विषयमोग करते हैं, तब विषयको निचोड़कर उसमें-से रस-स्वाद और सुख पाते हैं।' वे कहते हें--पहाँ हम धर्म करते हैं तो परिश्रमप्ते उपाजित धर्म- विश्राम इन दोनोंके द्वारा एक नवीन अमृतको उत्पन्न करते हैं ओर उसे स्वग॑में पते हैँ । उपासक रोग कहते है--'हम भावनासे एक अमृत उत्पन्न करते हैँ गौर उसका आस्वादन करते है ।' कठोपनिषद्‌ : १ ७३७ ४७




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