पंचायतीराज व्यवस्था | Panchayatiraj Vyavastha

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Panchayatiraj Vyavastha by विजय करण सिंह - Vijay Karan Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अध्ययन परिचय 7 9 क्षया जवन संवैधानिक प्रावधान अक्षम-अयोग्य भरष्ट व आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को इन सस्थाओं से दूर रख पायेगा? 10 जनहित याचिकाओं की आती थाढ़ क्या पचायती राज सस्थाओ के कार्यों में শু नहीं होगी? यदि होगी तो उपायों के बारे में क्या-क्या प्रावधान सोचे गये हैं? महात्मा गांधी लोकनायक जयप्रकाश नारायण तथा विमोवा भावे नै जिस “प्राप स्वप्ज्य”' की कल्पना कौ थी। इस नवीन पचायतीराज अधिनियम द्वारा कितनी साकार हो थायेंगी? क्या हमारी जनता नेता तथा नौकरशाही इसकी यथावत क्रियान्विती हेतु प्रतियद्ध है? हमारे देश की पारिस्थितिकी और परिवेश लोकतत्र के इस प्रारूप कौ व्याहार्यता के अपकूल भी है या भहों? पचायतीयाज व्यवस्था का पूर्ववर्ती प्रारूप उपरोक्त शकायुकत प्रश्नों के सपराधान कया कोई विवेक सम्मते समाधाय खोज पाने में सक्षम हुआ? जनप्रतिनिधि वागरिक जथा कार्मिक वर्ग इतर दोनों व्यवस्थाओं कौ सफ़लता-अप्तफलता অহা সু का कैसा ग्राफ दींचते हैं? यह इस शोध विषय मे ज्ञातव्य है। वक्‍त का विवेक हृदयगम कर साकार इठ सप्थाआ कौ सफलता तथा मजबूती के लिए कितनी प्रतिबद्ध हैं? जनता को जनप्रतिनिधियों कार्मिको से जनप्रतिनिधियों को कार्मिकों व जनता से तथा कार्मिको कौ जनता तथा जनप्रतिनिधि से क्या समस्याएं है तथा क्या सद्योग कौ अपेक्षां है? चायो को अपनी- अपनी जगह अपेक्षित भूमिका निर्वहन हेतु क्या किसी भये प्रावधान या इस व्यवस्था में परिवर्तन की अपेक्षा है? कितने खरे ये आपस में सामजस्य व सरकार घ जन कल्याण एव विकास के प्रति खरे उतरे हैं? और कहाँ ये माधक साबित हो रहे हैं? 'लोककल्याण एप लोकतत्र तथा ग्राम स्वएज्य व ग्राम सुशज कौ सवाहक ये सस्थाएँ राज्थानं सरकार के 1994 के पचायतीराज अधिनियम पश्चात्‌ पूर्वयर्ती पदायतीराज़ व्यवस्था प्रारूप कौ ओर कहाँ तक सफल व लोकग्राध्य बन पायी? भारत की 80 प्रतिशत जनता ग्रामीण भूभाग पद्‌ रहती है जिनका प्रत्यक्ष भाग्य विधाता पचायतीाज सस्थाएँ ही हैं अत जब तक ये सस्थाएँ अपने प्रयाजन मे फलोभूव नहों होगीं समग्र प्रयास व्यर्थ हैं किसो भी व्यवस्था प्रक्रिया च प्रायधान्‌ कौ सपफलंता-असफलता अनुकूलता तथा प्रतिकूलता का मूल्याकन तब तक नहीं हो सकता जब तक कौ उसकी भूमिका का मूल्याकन न हो। विकल्पाधारित मूल्याकन ओर भी सटीक व व्यवस्थित हो सत्य के करव होता है। अत पूर्ववर्ती व्यवस्था के अवप्तात व भवौन प्रारूप के दूसरे दशक मे कदम रखते हो शोध का एक अपेक्षित व महत्त्वपूर्ण आधार दोनों प्रारूपों के दुलनात्मक अध्ययन का बनवा हैं। ताकि शीघ्र समय रहते वर्तमान प्रारूप यदि जनाकाक्षाओं के अनुकूल हमारे यहाँ की पारिस्थितिकी पर्यावरण के अनुकूल खग नहीं उठर रहा हो तो इसमे परिवर्तन के प्रति हमे विनप्र एवं विनोत हो जाना चाहिए न कि जडवत। दोनो प्राहपो की क्रियान्विती को नियति एवं नियत भे खोट शोध उपरात उजागर हुई है। उत्तरराताओं ते उवौन व्यवस्था के साथं चूव॑वर्ती व्यवस्था के कुछ ग्रावधानों को चुत्र लागू करने को पुरजोर सहमति व्यक्त की | नवीन प्रारूप यापक जतभागौदायी क कारक यता तो प॑चायतीराज सस्थाओ के सशक्तिकरण का भी




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