वचनिका राठौड रतनसिंघजी री महेसदासौत री खिडिया जगा री कही | Vachanika Rathore Ratansinghji Ree Mahesdasoit Ree Khidiya Jaga Ree Kahi

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Vachanika Rathore Ratansinghji Ree Mahesdasoit Ree Khidiya Jaga Ree Kahi by काशीराम शर्मा - Kashiram Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१८ गभित- दो भेद होते हैँ) परामुख उक्ति (उक्त)--जहाँ कवि अपने वचनों मे वंनीय विषय का वर्णन न कर किसी भ्रन्य के मूख से वणन कराये वहाँ परामूख उक्ति होती है । इस परामुख उक्तिकेभी परमुख-परामुख-उक्ति तथा सन्मुख-परामुख-उक्ति नामक दो भेद हैँ । श्रीमुख उक्ति (उक्त)-- जहां वणंनीय व्यक्ति श्रपने ही मुख से श्रपनी ग्रवस्था का वरन करता है वहाँ श्रीमुख उक्ति होती है। उस के भी कल्पित-श्रीमुख-उक्ति और साक्षात्‌-भ्रीमुख- उक्ति (साख्यात श्रीमुख उक्त) नामक उपभेद हैं । कल्पित-श्रीमुख-उक्ति में नायक अपने विषय भें कुछ कल्पनाएँ करता है और साक्षात्‌-श्रीमुख-उक्ति में वह वस्तुतः अपना वर्णन करता है । मिश्र उक्ति--उपर्युक्त चारों उक्तियों का किसी काव्य में एकत्र समावेरा भी संभव है और उस अवस्था में वह काव्य मिश्र-उक्ति-काव्य कहलायेगा । जथा डिंगल साहित्य-शास्त्र का एक विवेचनीय तत्त्व जथा (यथा) है 1 यह्‌ वस्तुतः वाक्यों के विन्यास कौ एकं रीति है । उस कौ परिभाषा देते हुए रघुनाथ-रूपक' मे लिखा है-- रूपक माहि रीत जो वरन करे विचार । सो क्रम निबहे सो जथा तव मंदं विस्तार ॥ श्रर्थात्‌ कविता में वर्णन करने के लिए प्रारम्भ में जिस रीति को ग्रहण किया गया हो उसी का क्रम-पूर्वक निर्वाह करना जथा है । डिंगल-ग्रन्थकारों ने जथा के ग्यारह भेद बताये हैं। वे इस प्रकार हैं :---विधानीक, सर, सिर, वरण, अहिगत, आंद, अंत, सुद्ध, इधक, सम, नून । विधानीक जथा--कविता के प्रत्येक पद में क्रम से जिन वस्तुओं का वर्णन किया जाता है उन वस्तुओं की नामावलि चौथे पद में दे दी जाये तो विधानीक जथा होती है । सर जथा--यथासंख्य अश्र॒लंकार का प्रयोग कर के जहाँ एक वर्णन श्यृंखला दी जाती है वहाँ सर जथा होती है। सर जथा के चार उपभेद भी हैं। पहले में केवल यथासंख्य अलंकार के द्वारा वर्णन होता है। दूसरे में यथासंख्य के साथ उल्लेख अलंकार भी होता है । तीसरे में देखने या समभने वाले का नाम अन्त में आता है और अलंकार उल्लेख होता है। और चौथे भेद में वर्शनीय विषय का नाम प्रथम पद में ही आता हैं । सिर जथा-गीत के प्रथम दोहले में जो वर्णन किया जाये वही बात अन्त तक शब्दान्तर द्वारा व्यक्त की जाये वहाँ सिर जथा होती है। वरणए जथा--जहाँ कवि प्रत्येक दोहले में नया वर्णांत करे वहाँ वरण जथा होती है । अहिगत जथा--जहाँ काव्य का वर्णन सपं की गति के समान वरणंनीय विषय की दिशाएँ बदलता जाये वहाँ स्रहिगत जथा होती है । श्राद জথা-_নহাঁলীন विषय का नाम प्रथम दोहले में हो और श्रागे के दोहले में उस का वर्णात हो वहाँ श्राद जथा होती है । श्न्‍्त जथा--प्रारम्भ के दोहलों में जो वर्णन हों उन से अंतिम दोहले में कुछ सार निकाला जाये वहाँ भ्रंत जथा होती है । सुद्ध (शुद्ध) जध--प्रथम दोहले में जो वर्णन हो वही वर्शान अंत तक के दोहलों में




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