दिगदेशकाल स्वरूपमीमांसा | Digdeshakal Swarupmeemansa

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Digdeshakal Swarupmeemansa by राजेन्द्र प्रसाद - Rajendra Prasad

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about राजेन्द्र प्रसाद - Rajendra Prasad

Add Infomation AboutRajendra Prasad

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
दिगदेशकालस्वरूपमीमासा ऋ कि टितस्पयिमर्शपय ज्ञान! इस साम्कृतिक-निष्ठा के सरण फे लिप सुष्टित्यमिमरपपयण, शानशक्तियुक्त गद्वानू-त्राह्ण गौ अपनी इस साम्झ| সাতঘশ से, प्रयासपूर्वत वअराजन्य' ही वना रहना चाहिए । क्योकि यही इसके साम्क्रतिक स्वरूप हे का प्रमुख अवलम्ध है | अर्थात्‌ दिगदेशफालनिवस्वन शासततस्तात्मक सातो कै परमाय से, आराश्रव ब्राक्षण वो असुछृष्ट द्वी बना रइना चाहिए | রী দি ४६-संस्कृति? और 'सम्यता' शब्दों से अनुप्राणिता प्रआपति की दो यिमिन्न सृष्टियों का स्वहुप-दिगृदशन-- कारण स्पष्ट है । सस्‍्क्ृति, और सम्यता, दोनों शब्द सुप्रहिद्ध हैं। पाश्ममीतिस महायिश्व के खष्टा मन प्राणनाइ मय नि प्रजापति' का आरम्भ में स्मएण किया गया हे, उस वी छरति' [ स्वना ] ट महिम! भागों में मिमक्त मानी गई दै । सुखमा श्राणात्मिका-कृति' दी उस प्रजापति की “श्रन्तरज्ञकति' है, एव स्थूता 'वराइ मयी-कृति' ही उसकी “बटिरिल्न कृति' हे । इन्दी को सूदरमझुति, स्थूलक्ृति, मी कह्दा जासकता है | प्राशक्वतिस्पा सूदमकृति उस की रस्‍्य-पूर्णा 'परोक्षकृति' हे, एव वासकृतिल्‍्पा म्यूनक्ृति उस की प्रत्यक्ष कृति' है 1 एक दी प्रजापति की कृति कया, और कैसे दो मद्दिमा भावों म परिणत दोगई ५ प्रशन का तासि स्माघान-'भद्ध हू थे प्रजापतेरात्मनों मत्यमासीत-अद्ध मसतम' (रातप्रथ्माक्षणे) इत्यादि श्र्‌तियचन के रहस्यत्रीध पर ही अ्रवलम्बित है । ४७-प्रकृतितिशिष्ट पुरुपप्रजाति का सस्मरण, एवं उस के श्रम्ृत मर्त्य भात्रों का स्मरूप- दिगृदर्शन-- “प्रक्रतिपिशिष्ट पुरुष का ही नाम प्रजापति हे' । मत प्रवान गव्यपपुरुप ही 'पुरुष' है, पिमे “भा-रुप, सत्यात्मक, आऊाशात्मा मी माना गया है (१)। मनोमय दस अव्ययपुरष की श्रन्तरद्ा 'पण! प्रकृति ही 'थत्तर' है, और यह प्राणप्रचाना है, एमी दै । एव ऋसा 'अपरा' प्रकृति ही 'छर! है, श्रीर यह वास्ययाना है, वाद मयी है } मनोमय, मन प्रधान অন্য की वही प्रकृति रसप्राधान्या- वत्या में-“अमृताप्रकृति' है, यदी अमृताज्षर' है (२) | एड इसी पुरुष वी वही प्रकृति चलभ्राघान्यापभ्या म भर्त्याभरुति ६, यही 'मत्येत्तर' हे । इस्प्कार पुय की एतद पररि र्मातुबन्धी श्रा तथा সিন क भेदसे টি আন, ঘন হন তী বিমার में परिणत होरही ই | प्रकृति नों विव्त' ही हमश प्राणात्मिका सूइ्मकूति, तथा ফাসি कृतिये। मौ प्रयि यन रह है । क ५ जम्‌ चगि पक्ति दन दोना




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now