रामभक्ति में रसिक सम्प्रदाय | Rambhakti Me Rasik Sampraday

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(श्र) चिताोल मनुष्य के मन को अव्य भणोडित कर्ते र} वस्तुतः एक अदय अखड तख ह विद्यमान है। वह खतत्र एय परमानन्द-स्वस्प है ! वही सेल करतां र, क्योकि सानन्द या स्वमाव हो खेलना है, छोड़ा करना है । इसौटिये वह आतकाम योर स्पद्ठाहीन होने पर भी स्वभाव बच्च होकर छीला अधवा क्रीडामसग्न रहता है-- आत्मागमोष्प्यरीरमद” । वह्‌ स्वय एकसे अनेक बन जाता रै, अनन्त स्य धारा कस्तो है, अनन्त भवे के सुगु अनन्त स्प पारण करता है--एरप होता रे, प्रकृति होता है, सत्र कुछ होता है। एक दृष्टि मे जो असग पुरुण है, दूसरी दृष्टि से वही प्रेममय होकर सरे साय विनिन्न सम्बन्धी से सम्बद्ध होता है। प्रति सम्बन्ध में ह्वी भाव के एक एक জ দা प्रकाश होता है। रूप अनन्त है, क्रियायें अनन्त है, उसके बाद भाभ्यः विषय भेदसे भाव के आलवन भी अनन्त हैं। इसीलिये मोग मे अनन्त प्रवार का रसास्वादन होता है ! जो रस का स्वरूप है, वही रस का भोक्तो भी है अर्थात्‌ भौत्ता और मोग्प अभिन्‍न हैं। भोग की भी यही स्पिति है | अथच ভীলাহযত में अनन्त वैचिन्प है। ( भाव! शब्द से यहाँ रथायीमाव समझना घादिये ) यइ छीढा देशकाल के अतीत है। आहत देशकाउ से परे उसकी स्थिति मायातीत है--बह्दाँ अप्राकत देशकार की सत्ता है।' चिदाकाश अथवा अनन्त परव्योम ही घाम या देश है । अष्टकाल दी फार ३ 1 इसीलिये नित्यलीला मामिका देश-बा के द्वारा परिच्छिन्त यों है। विपाद-विभूति के लीला विषय में हो यह बात कही गई है। एकपादविभूति की ढीला भी है, विन्तु ब्रद्माइवर्तो तथा सृष्टि प्रछय घटित होने के पारण वह्‌ अनित्य तमा परिम्रित है। बस्तुतः यह एकपाद विभूति की लोला हो जीर का पालधीन सासारिक जीवन है । वष्ट परम वतु “स्वेच्स्या खमिती विश्यमुस्मोल्यति |” थी इस लोला- सित्र का उद्ायन करते हैं दे अपने भीतर ही करते हैं। धाम या देश মী स्पय ही, फाछ भी स्यं ठी, उसमा उपादान भी स्ववं दी, सरीर निभिन মীলধ ভী। নই द्वितीय की अपेक्षा नहीं है। बिसरो इस छोछा का $--जो छोग इस गुदा पिय बे दलन नदीं कर सकते है, ये एप 6) ডি3490010 হাযির 41060৮62220. 36) লাম সয় षष पतलभ्स्छण या दिम्बधाम प्रकरण देः शुभा ग 76০01 অযা (89808 ॐ নিলেও शीर्षक दो अध्याय देख सकते हैं॥ इस विपय मे 16१) ভিডিঘ 13277002301 107005028 यी द्रष्टव्य हे ।




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