द्वीवेदी युगीन खण्डकाव्य | Dwivedi Yugin Khandkavya
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
364
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)खण्ड काव्य : स्वरूप-विवेचन : ७
“खण्ड काव्यं भवेत्काव्यस्थेकदेशानुसारि च ।' अर्थात् खण्ड काव्य, काव्य
का एक देशानुसारी होता है। एकदेशानुसारी से स्पष्ट तात्पर्य यह है कि
खण्ड-काव्य में काव्य जितना फैलाव या विस्तार मही होता, वह उसके एक
भाग, उसके कथ्य के एक भाग जितने विरतार तक ही अपने को सीमित रखता
है । इस प्रकार खण्ड काव्य की यह परिभाषा काव्य की परिभाषा पर आधित
है | आचाये विदवनाच के अनुसार “काव्य” की परिभाषा है--
भाषा विभाषा नियमात्काव्यं सगे समुज्ितम ¦
एकार्य प्रवणे. पचै संधिसामग्रय् वजितम् ॥*
अर्थात् काव्य, भाषा अथवा विभाषा (अर्थात् सस्कृत, प्रात, अपभ्रेश)
में लिषा जाने वाछा वह (प्रबन्ध) रूप है जिसके लिए सर्गों का बन्धव आव-
आवश्यक नही और न॒ तो यही आवश्यक है कि सभी संधियो की उसमे
योजना हो ! वह एकार्थ-प्रवण होता है अर्थात् किसी एक अर्थं (धर्म, अर्थं,
काम, मोक्ष मे से एक) या प्रयोजन की सिद्धि उसका उद्देश्य होता है।
आचायं विश्वनाथ द्वारा दिया गया काव्य का यह रक्षण €द्रट के रूघु
प्रबन्ध-काव्य जैसा ही है | रुद्रट ने भी लधु-प्रवन्ध मे चतुवंर्ग मे से किसी एक
की सिद्धि उसका उद्देश्य माता है । साथ ही किसी एक रस का समग्र या यदि
कई रस हों तो उनका असमग्र वर्णन करने का निर्देश दिया है।
उपयुंक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि संस्कृत काव्य-शास्त्र की परम्परा में
काव्य के दो भेदो-अनिवद्ध-काब्य और निबद्ध-काव्य की अवधारणा प्रारम्भ
से ही चली आ रहो थी । इसी को कुछ आचार्यों ने मुक्तक वर्गीय काव्य
जिसमें युस्मक, कछापक आदि सन्निविष्ट हैं और प्रबन्ध काव्य भी कहा है।
प्रारम्भ मे निबद्धं अथवा प्रबन्ध काव्य के रूप में केवछ महाकाव्य के लक्षण
दिये गये और इस वर्ग में मात्र यही काव्य-रूप मे चचित रहा, किस्तु रुद्रट
ने स्पध्ट रूप से प्रवन्ध-काव्य के दो भेदो का निर्देश किया--(१) महा-अवन्ध-
काव्य, (२) लघु प्रबन्ध-काब्य । रुद्रट ने तीसरा भेद क्षुद्र काव्य का भी
बताया जिसमे निश्चित ही लघु प्रवन्ध के विस्तार की अपेक्षा कम विस्तार
अपेक्षित था। कविराज विश्वनाथ ने महाकाव्य, काव्य और खण्ड काब्य
इन तीन वर्गों मे प्रवन्ध काव्य को वर्गीकृत क्रिया । लक्षण तथा उदाहरण से
स्पष्ट पता चलता है कि रुद्रट द्वाय्य निर्दिष्ट रूघु-प्रदस्ध-काव्य और आचार्य
विश्वनाथ दार उल्लिखित काव्य समान कोटि के प्रवन्ध काब्य हैं, किन्तु
4. साहित्य दर्षण, ६1३२८ ॥
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