काव्य में उदात्त तत्त्व | Kavya Men Udat Tattv
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
134
श्रेणी :
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डॉ. नगेन्द्र - Dr.Nagendra
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नेमिचंद्र जैन - Nemichandra Jain
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूमिका এ
ही विफन हो जाता है, इसीलिए लोगिनुस झलकार प्रयोग के लिए यह झावश्यक
मानते हैं कि वह साधन रुप हो, प्रसगानुकूल हो, प्रतिचार से मुक्त हो और अय
लज हो--कम से कम अयलतज प्रतीत हो. क्योकि कला प्रद्धति के समान प्रतीत
होने पर ही सम्पूण होती है 1 4
उदात्त वे पापक् ग्रलकारो मे रूपक के श्रतिरिक्त लागिनुस ने विस्तारणा,
शपथोक्ति (सोधन), प्रस्नालकार वपयय व्यतित्रम, पुनरावत्ति, छिनवाक्य
प्रत्यक्षीक्रण, सचयन, सार, रूप-परिवतन पर्यायोक्ति आदि का मनोव्नानिक
पद्धति से विवेचन किया है। १ विस्तारणा के तत्त्व हैं विवरण और प्राचुय 1
“विस्तारणा क्सी विषय के समस्त भगो और प्रगभूत प्रसगो के समुदाय का नाम
है, जिससे विषय के विस्तार हारा युक्त म॑ं बल झाता है।' * यह अलकार घटनाओा
अ्रथवा युवतियों को प्रवलता से प्रस्तुत कर सघनता की सप्टि करता हुआ उदात्त
शली के निर्माण मं योगदान करता है। २ शपयाक्ति झलकार--जिसके लिए
लोगिनुस सम्बोधन नाम को अधिक उपयुक्त मानते हैं--शपथो के द्वारा शोज
श्रौर विश्वास कौ सष्टि करता है । {पृष्ठ ७४) । ३ प्रदनालकारमे प्रनोत्तर
की सत्वर परम्परा के द्वारा वक्ता स्वेयही प्रश्न कर उनका समाधान प्रस्तुत
करता है ग्नौर इस प्रकार उसका वक्तव्य अधिक उटात्त प्रौर विश्वासीत्पादव
बन जाता है। इस भ्रलकार भ प्रश्न उठाकर अपने आप ही उनका उत्तर द॑ देने से
भावावंग का स्फीट स्वामाविव' जाने पडता है। (पृष्ठ ७८) ४ विपयय झौर
५ व्यक्तिप्रम म शब्दो श्रथवा विचारा के सहज क्रम मे उलट फर कर दिया जाता है.
(पृष्ठ ८१)। जिस प्रकार मनुष्य वास्तव में क्रोध, मय, मयु, ईर्ष्या श्रथवा विसी
अय भावना से (क्याकि आवेग अनेक और असख्य हैं श्र उनकी गणना सम्भव
नहीं) उत्तजित होकर कभी-कभी दूसरी ओर मुह फर लेते हैं अपने मुख्य विषय
को छोडकर दूसरे प्रर लपक ওত हैं श्रोर बीच ही मे कोई सवधा असम्बद्ध बात
ले श्रते, फिर उसी प्रकार भ्रचानक ही तेजी से घूमकर श्रपने मुख्य विषय पर
लौट आते हैं और वातचकर की भाति अपने हो वेग से परिचालित होवर जल्दो
जल्दी इधर उधर बहकते वे अपनी ब्दावली को, विचारों को भ्रौर उनके सहज
क्रम वी नाना प्रकार के अमख्य रूपो मे बदचते रहते हैं, उसी प्रकार श्रेष्ठ लेखच
विपयय के द्वारा इस सहज प्रभाव को यथासम्भव अभिव्यकत करते हैं।
(० रर)
६ पुनरावृत्ति और ७ छिनवाक्य का उद्देश्य भी वहुत कुछ इसी प्रकार का
२ कब्य मैं उदात तख, एष्ध 5९1 > बडी पष्ठ ६५॥
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