जगद्विनोद | Jagdvinod

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Jagdvinod by पद्माकर - Padmakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८ ज्ञगद्विनोद देति पिया न छुबे छतियाँ बतियाँन में तौ मुसुक्यान लगी है । प्रोतमैं पान खबाइबे कों परजंक के पास लो जान लगी है ॥४०॥ पुनयेधा-( दोहा ) दूरहि वे हग दै रहति, कति कटर नहिं बात । दिनक छबीले को सु तिय, छवन देति क्यां गात † ॥४१॥ मध्या को छच्लणं इक समान जव हौ रहत, लाज मदन ये दोड। जातियके तन में तबहिं, मध्या किये सोई ॥४२॥ ~> मन्या को उदाहर्ण-( सवैया ) आई जु चील गुपाल घरे त्रजवाल बिखाल मूनाल-सी बंदी । त्यों 'पदमाकर' सूरति में रति छे न सके कित हूँ पर्य ॥ सोमभित संसु सनो उर-ऊपर सौज मनोभव को मन माहों । लाज बिराजि रही भँखियान में प्रान में कान्ह जुबान में नाहीं ॥४ ३॥ पुनर्वथा--( दोहा ) मदन-लाज-बस तिय-नयन, देखत बनत इकंत । ईंचे-खिंचे इत-उत फिरत, ज्यों दुनारि के कंत ॥४४॥ प्रौढ़ा को लक्षण ललित लाज कछु मदन बहु, सकल केलि की खानि । प्रौद्दा ताही सों कहत, सुकबिन की मति सानि ॥४७५॥ प्रौढ़ा को उदाहरण--( कवित्त ) रति बिपरीत रची दुंपत्ति शुपति अति, मेरे जानि मानि भय मनमथ-नेजे तें । कहै “पद्माकरः पगी यों रस-रंग जा में, खुलिगे सु अंग खव रंगनि अमेजेतें॥




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