जगद्विनोद | Jagdvinod
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
181
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)८ ज्ञगद्विनोद
देति पिया न छुबे छतियाँ बतियाँन में तौ मुसुक्यान लगी है ।
प्रोतमैं पान खबाइबे कों परजंक के पास लो जान लगी है ॥४०॥
पुनयेधा-( दोहा )
दूरहि वे हग दै रहति, कति कटर नहिं बात ।
दिनक छबीले को सु तिय, छवन देति क्यां गात † ॥४१॥
मध्या को छच्लणं
इक समान जव हौ रहत, लाज मदन ये दोड।
जातियके तन में तबहिं, मध्या किये सोई ॥४२॥
~> मन्या को उदाहर्ण-( सवैया )
आई जु चील गुपाल घरे त्रजवाल बिखाल मूनाल-सी बंदी ।
त्यों 'पदमाकर' सूरति में रति छे न सके कित हूँ पर्य ॥
सोमभित संसु सनो उर-ऊपर सौज मनोभव को मन माहों ।
लाज बिराजि रही भँखियान में प्रान में कान्ह जुबान में नाहीं ॥४ ३॥
पुनर्वथा--( दोहा )
मदन-लाज-बस तिय-नयन, देखत बनत इकंत ।
ईंचे-खिंचे इत-उत फिरत, ज्यों दुनारि के कंत ॥४४॥
प्रौढ़ा को लक्षण
ललित लाज कछु मदन बहु, सकल केलि की खानि ।
प्रौद्दा ताही सों कहत, सुकबिन की मति सानि ॥४७५॥
प्रौढ़ा को उदाहरण--( कवित्त )
रति बिपरीत रची दुंपत्ति शुपति अति,
मेरे जानि मानि भय मनमथ-नेजे तें ।
कहै “पद्माकरः पगी यों रस-रंग जा में,
खुलिगे सु अंग खव रंगनि अमेजेतें॥
User Reviews
No Reviews | Add Yours...