संस्मरण और आत्मकथाएं | Sansmaran Or Atmkathae
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
120
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand): विश्वकवि रवीद्धनाथ ११
`` उन. दिनों हमारा. घर. आदमियो से भरा था । कितने अपने, कितने
पराये, कुछ ठीक नहीं । परिवार के अलग-अलग कई महकमों के दास-दासियों
का शोरगल वरावर मचा रहता था ।
सामने के आंगन से पियारी महरी कांख-तले टोकरी दवाएं साग-भाजी
केश बाजार किए आ रही है । दुबखन कहार कन्व पर कावर रखकर गगा
का पानी ले आ रहा है। तांतिन नए फैशन की पाड़वाली साड़ी का
सौदा करने घर के भीतर घुसी जा रही है ! माहवारी मजूरी पानेवाला
दीनू सुनार, जो पास की गली में बैठा-बेठा भाथी फसफसाया करता हूँ और
घर की फर्माइशें पूरी करता हूं, खजांची-खाने में कान में पांख की कलम
खोंसे हुए कलाश मुखर्जी के पास अपने वकाया का दावा करने चला आ रहा.
है । आंगन में वेठा हुआ धुनिया पुरानी रजाई की रूई धुन रहा है । वाहर
काने पहलवान के साथ मुकुन्दलाल दरवान लस्टम-पस्टम करता इजा कुश्ती
“के दांव-पेंच भर रहा हैं । चटाचट आवाज के साथ दोनों परो मं चपटा
मारता जा रहा है और वीस-पचीस वार लगातार डण्ड पेल लेता हं । भिखा-
रियों का दल अपने हिस्से की भीख के आसरे में बेठा हुआ हं । |
.. दिन बढ़ता जा रहा है, धूप कड़ी होती जाती है, ड्योढ़ी पर घण्टा चज
उठता है । पर पालकी के भीतर का दिन घण्टे का हिंसाव नहीं मानता 1
वहां का बारह व्जे वही पुराने जमाने का हं, जव राजभवन के सिहासन पर
सभा-भंग का डंका वचा करता, राजा चन्दन के जल से स्वान करने उठ जाते ।
छुट्टी के दिन दोपहरी को मै जिनकी देख-रेख में हूँ, वे सभी खा-पीकर सो रहे
हं । अकेला बेठा हूँ । चलने का रास्ता मेरी ही मर्जी पर निकाला गया ह् ।
उसी रास्ते मेरी पालकी दूर-दूर के देश-देशान्तर को चली है । उन दिलों के
साम मैंने ही अपनी कितावी विद्या के अनु सार गढ़ लिये हैं । कभी-कभी रास्ता
घने जंगल के भीतर घुस जाता हँ---( जहां ) वाघ की आँखें चमक रही हे ।
क्षरीर सनसनां रहा है । साथ में विश्वनाथ शिकारी हैं । वह उसकी ঘন
२.
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