संस्मरण और आत्मकथाएं | Sansmaran Or Atmkathae

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Sansmaran Or Atmkathae by रवीन्द्रनाथ टैगोर - RAVINDRANATH TAGORE

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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: विश्वकवि रवीद्धनाथ ११ `` उन. दिनों हमारा. घर. आदमियो से भरा था । कितने अपने, कितने पराये, कुछ ठीक नहीं । परिवार के अलग-अलग कई महकमों के दास-दासियों का शोरगल वरावर मचा रहता था । सामने के आंगन से पियारी महरी कांख-तले टोकरी दवाएं साग-भाजी केश बाजार किए आ रही है । दुबखन कहार कन्व पर कावर रखकर गगा का पानी ले आ रहा है। तांतिन नए फैशन की पाड़वाली साड़ी का सौदा करने घर के भीतर घुसी जा रही है ! माहवारी मजूरी पानेवाला दीनू सुनार, जो पास की गली में बैठा-बेठा भाथी फसफसाया करता हूँ और घर की फर्माइशें पूरी करता हूं, खजांची-खाने में कान में पांख की कलम खोंसे हुए कलाश मुखर्जी के पास अपने वकाया का दावा करने चला आ रहा. है । आंगन में वेठा हुआ धुनिया पुरानी रजाई की रूई धुन रहा है । वाहर काने पहलवान के साथ मुकुन्दलाल दरवान लस्टम-पस्टम करता इजा कुश्ती “के दांव-पेंच भर रहा हैं । चटाचट आवाज के साथ दोनों परो मं चपटा मारता जा रहा है और वीस-पचीस वार लगातार डण्ड पेल लेता हं । भिखा- रियों का दल अपने हिस्से की भीख के आसरे में बेठा हुआ हं । | .. दिन बढ़ता जा रहा है, धूप कड़ी होती जाती है, ड्योढ़ी पर घण्टा चज उठता है । पर पालकी के भीतर का दिन घण्टे का हिंसाव नहीं मानता 1 वहां का बारह व्जे वही पुराने जमाने का हं, जव राजभवन के सिहासन पर सभा-भंग का डंका वचा करता, राजा चन्दन के जल से स्वान करने उठ जाते । छुट्टी के दिन दोपहरी को मै जिनकी देख-रेख में हूँ, वे सभी खा-पीकर सो रहे हं । अकेला बेठा हूँ । चलने का रास्ता मेरी ही मर्जी पर निकाला गया ह्‌ । उसी रास्ते मेरी पालकी दूर-दूर के देश-देशान्तर को चली है । उन दिलों के साम मैंने ही अपनी कितावी विद्या के अनु सार गढ़ लिये हैं । कभी-कभी रास्ता घने जंगल के भीतर घुस जाता हँ---( जहां ) वाघ की आँखें चमक रही हे । क्षरीर सनसनां रहा है । साथ में विश्वनाथ शिकारी हैं । वह उसकी ঘন २.




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