भगवच्चर्चा [भाग २] | Bhagavachcharcha [part 2]

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BHagavachcharcha [part 2] by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भगवच्चची भाम २ १६ कोई साधन भी नहीं दहै, जो ह्मे प्रतिदिन वढते इएु दुःख- दावानठसे बचाकर शीतल कर सके | इसलिये जगत्‌के मनोनुकूल न रहनेपर भी समय-समयपर संतोंने इस ओर लछोगोंका भ्यान खींचनेकी चेष्टा की है । ईश्वर खयंसिद्ध है और प्रत्यक्ष है । उसे किसीके द्वारा अपनी सिद्धि करानेकी अपेक्षा नहीं है | जीव जबतक मायामुग्ध रहता है तबतक उसे नद्दीं देखता, जिस दिन उसका माग्योदय होता है उस दिन संत-मह्ात्माओंकी कृपासे उसकी आँखें खुल्ती हैं. तब वह अपने सामने ही उस विश्वविमोहन मोहनको देखकर मुग्ध हो जाता है । उस समय उसका जो मायाका आवरण इटता है वह फिर कभी सामने नद्य आ सकता, वह कृतकृत्य हो जाता है; परन्तु मायामुग्ध ग्राणीके लिये ऐसा अवसर कठिनतासे भाता है, जब भगवान्‌ कृपा कर उसे सासारिक विपत्तियोंमें डालते हैं, जब जगतूसे हृदयमें निराशा उत्पन्न होती है उस समय संतोंका सङ्क प्राप्त होनेपर भगवान्‌की भोर जीवकी रुचि होती है । भगवान्‌का स्मरण दुःखम अनायास हआ करता है । इसीसे देवी कन्तीने भगवान्‌ श्रीकृष्णसे विपत्तिका वरदान माँगा था । जब चारों ओरसे विपत्तिके बादल मेंडराने लगते हैं, कह्दी- से भी कोई सहारा नहीं मिकता, उस समय मलनुष्यका हंद॒य खाभाविक ही उस अनजाने-अनदेखे निराश्रयके परम आश्रय किसी अचिन्त्य शक्तिकी गोदमें आश्रय चाहता है| उस समय उसके मुखसे सहसा यद्द शब्द निकल पडते हैँ कि श्रमो | अब तो




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