श्री जैनाचर्या | Shree Jainacharya

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Shree Jainacharya by सोहनलाल जैन शास्त्री - Sohanlal Jain Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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# परिडत आशाघर # “आशापरो विजयतां कल्िकालि- दास/! पढित आशाधर अपने सम यक्के अद्वितीय विद्यान थे। आपकी प्रतिभा महान ओर पांडित्य विशाल था | गृहस्थ होने पर भी आपकी सांसारिक विरक्ति और निष्छहत्ता प्रससनीय थी। अनेक भद्गारको ओर मुनियोने भी आपका शिष्यत्व स्वीकार किया है । पडित आशाधर ने ववेरवाल जाति फे एक सुमंस्क्रत ओर राज- मान्य घराने मे जन्स लिया था। आपके. पिता का नाम ध्री स्वक्ष शौर माता का श्रीरस्नी था। श्री सन्नक्षण जी राजा की उपाधिसे भूषित ये 1 श्रपनी योग्यता के फारण उन्हें मालवनरेश अजज बर्म देवफे অমি) নিস भन्नी का पद श्राप्तवा | आपरी जन्ममूसि मांटल्लगद्‌ थी। मेवाड़ प्रान्‍्त म उस समय सांश्लगद्‌ घोह्यन राजाओं के प्राघीन था। चान्यावस्था से ही श्राप मांदलपद त्याग कर धारा नगरी आये थे आपने व्याकरण ओर नयायशात्र का अध्ययन किया था। आपके विद्याशुरु पं० मद्दावीर जी प्रसिद्ध विद्वान थे | पडित आशाधरजी के पिता रान्यमान्य थे | यदि श्राप चाहते तो आपको भी उच्च राजपद प्राप्न हो सकता था । परन्तु आपने अपना जीवन जेनघर्म और साहित्य सेवा से ही लगा देना उचित समझा । आपकी पत्नी सी० सरस्वती के गर्भ से छाहूड नामक सुयोग्य पुत्ररतत हुआ था। आशापघरजी ने अपने सुयोग्य पुत्र की स्वय प्रगंसा गी हैं । उन्होंने लिखा है कि जिप्त त्तरह सरस्वती ( णारदा ) के द्वारा मैंने अपने आपको उत्पन्न किया,उसी तरह अपनी सरस्पती नासक पत्नी के गर्भ से छाहड को उत्पन्न किया जो अतिशय गुणवान ই। विन्ध्यवमा का राज्य समाप्त होने पर आप नालछा ( नलक- च्छपुर ) म रहते लगे ! उस समय नलंकन्छपुरु के राजा अजनदमस देव थे। उनके राज्यम आपने




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