सहजानन्द डायरी १९५६ | Sahajanand Dayari 1956

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Sahajanand Dayari 1956 by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सहजाक्तद डायरः १ श्रविनाशी त्रह्यरूप म्रविचल अज चित्‌स्वरूप 1 शुद्ध बुद्ध स्वत सिद्ध जो प्रभु मे सोई ॥१॥ प्रगटरूपका अवार निङ्चयत লিহানাহ । ये ही गुरू ये ही शिष्य भक्त प्रभु दोई 11২1) सहजानन्द सहजज्ञान, निजपरिणतिका লিভাল । जिन च्ी हा उन परिणति भिवबिक्ल्प जोई ॥३॥ जवतक दारोरनें श्रहव॒द्धि, ममबुद्धि रहती तबतक प्राणी कल्याणका पातर नहीं होता 1 जनतक शरीरकौ पाच्रता, स्नानः निर्मेलता बनानेका यत्व होता चबतक समाधिका पात्र नहु होया । जव तक शरोरका भान रहता तेव तक समाधिस्थ नही हौ सकता । दारीर शरीर (चालाक, उद्दड) हे शरीफ नहीं । मेह देहुका नेह प्रलयका मेष्ठ है। जो यशके रममे विवश है वह फसता है जग हँसता है । जो दुखको सनन्‍मृख नहीं कर सकता वह सुखकों भी सम्मुख नही कर सकता ! टीमटास चासधाम दास सासका ही जिन्हें काम हे उनका राम बेठास है । ` ता० १५-१-५६ जीवनके क्षेण दमादम गुजर रहै ह, वहु समय नजदीक है जव किश्रभीके प्रमी लोक इस श्रजीय कायकी राख कर देंगे। अजीव फाय का झुछ भी बने इसपर विचार नहीं है फिन्तु मनुष्यके सुन्दर क्षण शागे न मिल सके तो प्रपने झपपर बडा प्रत्याच्यर है) दुख आझाए तो आने दो, इनसे डरवर बदि सबलेश किया तो थे कई गुण होकर भ्रौर झाजेंगे । सुख जाए तो जाने दो, इनमें रमकर यदि गृद्धिकी तो ये लछेश भी न मिलेंगे ।.. अपमान होवे तो समतासे सहलो तो यथाशीघ्‌ तेरा उत्कृष्ट सन्‍्मान (उत्कृष्ट मान সাত सम्यरज्ञान-केवल ज्ञान) होगा। सन्मान होवे तो उसरों दूर रह लो अन्यथा दोनो भव अपसान ही होगा । टाद ठाठकी डाठ सोक्ष वाढकों काट है आम्म-घने फा मर्मे जाननेवाला ही भर्म दुर लर परम झर्मकों चै




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