मेरी जीवन यात्रा | Meri Jeewan Yatra

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Meri Jeewan Yatra by जानकीदेवी बजाज - Jankidevi Bajaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कुंट म्व-पाल साख थी और वह जबतक रहे तबतक धन-घान्य से भरे-पूरे रहे। उनका यह स्वभाव-सा हो गया था कि थोडा-बहुत मुनाफा मिलता तभी वह माल बेच देते, ज्यादा लोभ में न पडते । उसका श्रफीम का धन्धा था । खैतो से श्रफीम के रस के घड़े-के-घड़े भरकर आते । कुछ दिनो रखे रहने के वाद उस रस को बडी-बडी परातो में मथा जाता और फिर लड़इ जैसे गोले बनाए जाते । इसे अफीम की गोटियाँ कहते थे । कोठो मे लाखो की अफीम भरी रहती थी । कहावत है कि लोभ गला कठता है। पिताजी के बाद घर के लोगो को प्राय धाटा ही उठाना पडा, क्योकि वे उनकी नीति के भ्रनुसार नही चले । थोडे नफं मे सन्तोप माननेवाले को जोखम कम उठानी पडती है ओर वह्‌ लाभमे ही रहता है 1 उनके जीवन मे कुटुम्ब की स्थिति सभी दष्ट से श्रच्छी रही । विवाह के बाद जब में ससुराल जाने लगी तब पिताजी ने कहा था- “बेटी, तू पराये घर जा रही है। वहाँ अच्छी तरह रहना। ज्यादा न बोलना । कोई चार बार कहे तो एक बार बोलता ।” जैसा उनका जीवन भव्य रहा वैसी हो उनकी मृत्यु भी । जिस दिन उनका स्वगवासं हुभ्रा, उस दिन सुबह वह्‌ मदिर गये, ग्यारह वजे तक चिद्यं लिखते रहे । फिर नहाकर धोती पहन रहे थे कि उनको चक्कर भ्रा गया। कमरे से आये और लेट गए। लोग इकट्ठे हो गए । डाक्टरो को बुलाया गया । इन्दोर से भी डाक्टर बुलाये गए, पर कु भी फायदा न हुआ । शाम को सात वजे उनका देहान्त हुआ । कहते है, उनका प्राण ब्रह्माण्ड में से निकला । सिर ऊपर से फट गया था और खून गिरा। ऐसी मृत्यु किसी योगी या महापुरुष की होती हैं, ऐसा कहा जाता है । उस समय मेरी श्रायु दस-ग्यारह साल की थी




User Reviews

  • DrRaju

    at 2019-09-29 09:38:23
    Rated : 8 out of 10 stars.
    "जानकीदेवी : मेरी जीवन यात्रा"
    जानकीदेवी : 'मेरी जीवन-यात्रा' गाँधीजी के पांचवें पुत्र जमनालाल बजाज की पत्नी जानकीदेवी बजाज हैं। उनकी आत्मकथा है 'मेरी जीवन-यात्रा'। इस किताब की प्रस्तावना लिखी है आचार्य विनोबा ने। पहली बार यह 1956 में सस्ता साहित्य मंडल की पहल पर सत्साहित्य प्रकाशन से छ्पी। इस किताब को पढ़ते हुए अपना पुराना विश्वास दृढ़तर हुआ कि स्त्रियों को पढ़े बगैर किसी भी समाज का सच्चा और प्रामाणिक इतिहास लिखा जाना असम्भव है। कल्पना के घोड़े दौड़ाना और बात है। जानकीदेवी का परिवार धार्मिक शिक्षा और संस्कारों का परिवार था जैसे गांधी का परिवार था। इसे आप औसत भारतीय परिवार का संस्कार भी कह सकते हैं। अल्पवय में शादी हुई। पति को लगभग परमेश्वर माननेवाली पत्नी साबित होने की साध थी। तब की औरतें शादी के बाद 'पतिसेवा' नामक किताब पढ़ती थीं। जानकीदेवी को भी दी गई। एक-एक अक्षर को अपने जीवन में उतारने की चाह लिए किताब पढ़ती रही। पति की थाली का उच्छिष्ट भोजन खाने लगी। पातिव्रत्य में कुछ कमी रह गई तो पादोदक/चरणोदक भी लेने लगी। जमनालाल बजाज अगर कभी जेल जाते तो अतिरिक्त मात्रा में चरणोदक की पहले ही से व्यवस्था करके रख लेती। बीच में अगर मिलने जेल भी जाती तो झट चरणोदक का प्रबंध कर लेती। लेकिन जैसे-जैसे जमनालाल जी की राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रियता बढ़ती गई जानकीदेवी के लिए परंपरा का निर्वाह मुश्किल होता गया। सात परदों के भीतर रहनेवाली महिला ने जब खादी की मोटी साड़ी धारण की तो पर्दा करना असंभव हो गया। आगे कुछ भी दिखना बंद हो गया। बापू के सामने समस्या रखी तो विनोदी महात्मा ने मजाक में कहा कि आंखों के आगे जाली लगा लो। फैसला हुआ कि पर्दा न किया जाये। परंपरा में पति का नाम लेना भी पाप माना जाता था किंतु सामाजिक जीवन जीनेवाली जानकीदेवी से यह अभ्यास भी धीरे-धीरे छूटता गया। कुछ दिनों तक तो 'सेठजी' का सहारा रहा किन्तु अंततः जमनालाल जी पर आकर टिकी। पति का नाम लेना तब 'पाप' था। जानकीदेवी ने इसे अब 'पुण्य' बना दिया था। जानकीदेवी के मारवाड़ी समाज में गहनों का भी चाव था। पैर में चांदी की कड़ी जैसी कोई चीज पहनने का रिवाज था। धार्मिक मान्यता थी कि वह श्मशान तक साथ जाती है। राजस्थानी परिवार-समाज की गरीब से गरीब औरतें भी इसे पहनना अनिवार्य मानती थीं। और भी कई गहने थे जो पति के जीवन की गारंटी सदृश थे। बापू ने यह सब छुड़वा दिया। और यह सब लाखों-करोड़ों औरतों के साथ हुआ। मैं समझता था कि गाँधी के आगमन के बाद राजनीति और समाज में धर्म और अंधविश्वास का बोलबाला बढ़ा है, किन्तु जानकीदेवी की इस आत्मकथा ने मेरी आँखें खोल दी हैं। स्त्रियों की आत्मकथाओं के बगैर गांधी का सही मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।
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