तत्त्वमीमांसा | Tattvmimansa

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Tattvmimansa by सुधीन्द्र वर्मा - Sudhindra Verma

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about सुधीन्द्र वर्मा - Sudhindra Verma

Add Infomation AboutSudhindra Verma

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
उत्वमीमाँसक की कठिनाइयाँ + दूसरी शाखा के सिद्धान्तों के विरोधी भी प्रतीत हो सकते हैः उदाहरणार्थ यान्त्रिक- विज्ञान में हम सिद्धान्त रूप से यह मानकर चलते है कि प्रत्येक गति किन्ही पूर्वव्तिती गतियों की वामो के सधात द्वारा निर्धारित होती है किन्तु यह सिद्धान्त इतिहासन्नो और नीतिशास्त्रियों की आधार-मूमि, मानवीय वरण की स्वतत्रता और मानवीय उद्देश्यों की वास्तविकता जैसे मौलिक तथ्यों का विरोधी प्रतीत होता है और इसीलिए हमे फिर पूछता पडता है कि यात्रिक आवश्यकता और प्राज्ञ स्वातत्त्य मे से कौन वास्तविक हैं और कौत आभास मात्र । अन्ततः कभी-कभी हमारे वैज्ञानिक विवेचनों के परिणाम हमारी गहनतम और अत्यधिक छाक्षणिक आकाक्षाओं और प्रवोजनों के प्रवरु अपवादी-से प्रतीत होते है और तब इस सवाल से बचा नही जा सकता कि इन दोनो ही दृष्टिकोणों में से कौनसा वास्तविकता के अन्तरतम स्वरूप का साक्षी होने योग्य है? परेशानी के ऐसे मामलो मे उल्क्षनों से एकदम मुँह चुरा जाने के अतिरिक्‍त दी ही अन्य मार्ग हमारे लिए रह जाते है, या तो हम उन्त सवालों का जवाब मनमाने तरीके से और तात्कालिक भावना के वश होकर चाहे जिस ढंग पर दें या फिर किसी तकंसंग्त सिद्धान्त पर आधारित कोई उत्तर देने का प्रयत्न करे । यदि हुम इनमें से दूसरा रास्ता अपनाते है, तो स्पष्ट है कि अपने सिद्धान्तों का सृत्रीकरण करने से पहले हमारे छिए आवश्यक होगा कि हम एक सिलरूसिलेवार और वेलगाव जाँच कर ले कि सत्य मौर आभास के प्रचलित और परिचित विभेद का हम सही तीर पर क्या अर्थ लगाते है। अर्थात्‌ दूसरे कब्दो मे हेम उन सामान्य लक्षणो की एक वैज्ञानिक जाँच करऊें जिसके द्वारा त केवल अध्ययन के किसी विद्येष क्षेत्र में ही अपितु सर्वत्र ही आभास मात्र और सत्य अछुग-अलग पहचाने जा सके। जिनके द्वारा सत्य को वास्तविक आभास मात्र से कमोवेश अछूग किया जा सके, ऐसे सामान्य लक्षणों को बता सकने वाली वैज्ञानिक परीक्षा को ही सही तौर पर तत्त्वमीमासा नाम दिया गया है। तत्त्वमीमासा ही अन्य सवे विज्ञानो की अपेक्षा सर्वाधिक पद्धतीय और सावंत्रिक तरीको से वास्तविक अस्तित्व अथवा सत्य का जन्तिम अभिप्राय जानना अपना कर्तव्य समझती है। वह यह भी जानना अपना कर्तव्य समझती है कि विद्व-प्रपण विषयक हमारे विविध वैज्ञानिक अथवा अवैज्ञानिक सिद्धान्त किस सीमा तक असली सत्य के सामान्य लक्षणो के अनुकूल हैं। इसीलिए तत््वमीमांसा को एक ऐसा प्रयत्त' कहा जाता है जिसे सभी पु्वे-प्रत्ययनों से सतर्क और उनके प्रति संशयारु बने रहना आवश्यक होता है । अन्यत्र उसे संगत विचार-पद्धति का एक दृठसघ प्रयत्न' भी वताया गया है । जब तक हम अपने आप को थोडा-सा भी सोचने-बिचारने का मौका देना चाहते रहेगे तव तक तो क्या सत्य है' और “দ্যা আমান मात्र है! इस तरह के सवाल उठाये बिना हम रह नहीं सकते और इसीलिए तत्त्वमीमांसीय परिकल्पनाओं से पल्ला झाड़




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now