अपूर्व पुस्तकें | Apurva Pustaken

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Apurva Pustaken by जयशंकरप्रसाद - Jaysankar Prsaad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सरगना हिट खोलो द्वार शिशिर-कणोसे लदी हुई कमलीके भींगे हैं सब तार । चलता है पश्चिम का मारुत लेकर व्शीतछता का भार ॥ भींग रहा है रजनी का वह सुन्दर कोमल कवरी-भार । अरुण किरण सम कर से छुछठो खोलो प्रियतम खोलो द्वार ॥ धूल छगी है पद कॉटों से विधा हुआ है दुख झपार | किसी तरह से भूला-भटका झा पहुंचा हूँ तेरे द्वार ॥ न इतना धूलिघूसरित होगा नहीं तुम्हारा द्वार । घो डाले हैं इनको प्रिययर इन झॉस्ो से झॉलू ढार ॥ मेरे धूलि कगे पैरोसे इतना करो न घृणा प्रकाश । मेरे ऐसे छारों से कब तेरे पद को है झवकाश ॥ पैरों ही से लिपटा-लिपटा कर लुँगा निज पद निर्धार । श्र तो छोड़ नहीं सकता हूँ पाकर प्राप्य तुम्हारा द्वार ॥ सुप्रभात मेरा भी होवे इस रजनी का दुःख झपार-- मिट जावे जो तुमको देखूं खोलो खोलो द्वार ॥ केस ई+




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