लघुतत्त्वस्फोट | Laghutattvsphot

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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0 ५ तो अमृतचनदरके दारा प्रयुक्त कु पदो ओर वाक्याशोपर तथा कुल्दकुन्दके ्रन्थोसे कुछ प्रामाणिक गाथाभोको न ऊने पर सुविधापूवैक प्रका डाला जा सकता है । किन्तु यह सन पराधित कल्पना पर निर्भर है !! ১8 मेघविजयगणिने अपने युितप्रबोधमे दो पद्य शकृतके उद्धृत किये है । १ यदुवाच अमृतचन्द्र-- सब्बे भावा जम्हा पच्चक्ाई परेत्ति णाऊण। तम्हा पच्चवक्लाण णाण णियमा मुणेयन्व ॥ २ श्रावकाचारे अमृतचन्द्रोऽप्याह- सघो को वि न त्तारइ कटो मूको तदेव णिप्पिच्छो । अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा दु ्षायन्वो ॥ इनमे पहली गाथा तो समयस्ारकी ३४ वी गाथा है । यह अमुृतचन्द्रकी नही है। दूसरी गाथा ढाढसी गाथा नामक ग्रन्थक है अमृतचन्द्रको नही । इस गाथामे काष्टासघ मूलसघ और नि पिच्छिक सघोका उल्छेख है 1 इनमेसे अन्तिम नि पिच्छिक या माथुरसघकी उत्पत्ति दशंनसारमे वि० स० ९५३ के लगभग बतलाई है। स्व० श्री नाथूरामजी प्रेमीने लिखा” है कि यदि यह सही है तो ढाढसी गाथा विक्रमकी ग्यारहवी शताब्दीके पहलेकी नहीं हो सकती । प्रेमीजोने टिप्पणमे यह भी लिखा है कि ढाढसी गाथाकी एक प्रति ससस्‍्क्ृत टीका सहित (न० १६१०) बम्बईकी रायलछ एशियाटिक सो भयटीके लाइब्रेरीमे हैं। उसके अन्तमे इतना ही लिखा है कि इति 'ढाढसीमुनीना विरचिता गाथा सम्पूर्णा । इसका नाम ढाढसी गाथा अवश्य ही उसके रचयिताके नामपर ही पडा ज्ञात होता है, अन्यथा ढाढसी शब्दका कोई अर्थ नही होता । यद्यपि ढाढसी गाथा ध्यानसे सम्बद्ध है और उसमे आत्मध्यानको चर्चा होनेसे उसका विषय अध्यात्म है फिर भी उसके अमृतचन्द्र रचित होनेका कोई प्रमाण नही है। तथा न वह्‌ श्रावकाचार ही है। गणिजीने किसी गछत आधारपरसे हो लिख दिया प्रतीत होता है । किन्तु डाँ० उपाध्येने जो अमृतचन्द्रके द्वारा प्रयुक्त कुछ पदो और वाक्याशोंके समाधान की बात कही है, तथा उनके द्वारा कुछ गाथाओको अपनी टीकामे सम्मिलित न करना लिखा है वह विचारणीय है । पञ्चास्तिकायमे अमृतचन्द्रके अनुसार गाथा सस्या १७३ है भौर जयसेनकै अनुसार १८१ है । समयसारमे जमृतचन्दरके अनुसार गाथा सख्या ४१५ है ओर जयसेनके अनुसार ४३९ है । तथा प्रवचनसारमे अमृतचन्दरके अनुसार गाथा सख्या २७५ है तया जयसेनके अनुसार ३११ है गाथा सख्यामे इतना अन्तर पड़नेका कोई स्पष्ट कारण समझमे नही आत्तां। अमृतचन्द्र आद्य टीकाकार हैं अत उनके सन्मुख तो मूलग्रन्थ ही रहा है। किन्तु जयसेनके सन्‍्मुख अमृतचन्द्र की टीकाएँ रही है । इनके सिवाय भी कुन्दकुन्दके ग्रन्थोकी मूल प्रतियाँ उनके सन्‍्मुख होनी चाहिये जिनके आधारपर जयसेनने अतिरिक्त गाथाएँ सम्मिलित की हैं। ऐसा भी सम्भव हो सकता है कि कुछ गाथाएँ क्षेपक आदि रूपमे रही हो और उन्हे अमृतचन्द्रने मूरुकी न मानकर छोड दिया हो । किन्तु दोनोकी गाथा सख्यामे इतना अन्तर है कि क्षेपकवाली बात भी गले नही उतरती । १. जै० सा० इ०, पृ० ३१३।




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