अनुपम | Anupam

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Anupam by सुन्दरलाल दुगड़ - Sundarlal Dugad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अत्यन्त सुख भी पीडाकारी है एव अत्यधिक दु ख भी महाकष्टदायी है अत सुख और दु ख को बाटकर मनुष्य सुखी बन सकता हे । यह समत्व, यह समता, यह समरसता ही विश्वको सुखी ओर समृद्ध बना सकती दै । कामायनी के प्रणेता जयशकर प्रसाद्‌ कहते है- शक्ति के विद्युत कण जो व्यस्त विकल बिखर है, हो निरूपाय समन्वय उनका करे समस्त विजयनी मानवता हो जाय। श्री दुगड का जीवन आत्म निर्मित है। वीहड ओर कटकाकीर्णं पथ मे उन्होने अपनी राह स्वय बनाई है निर्भय, निडर ओर निश्चल रहकर वधु-बाधवो सगेसम्बन्धियो के लिए द नही अपितु हर पीडित सत्रस्त ओर असाध्य रोगी के लिए कल्पतर है श्री दुगड । अभाभाव के कारण उच्चाध्ययन सं वचित छात्रो के लिए कामधेनु दश्री दुगड। माखन लाल चतुर्वेदी एक भारतीय आत्मा कौ काव्य पक्ति- 'दो हथेली है, कि धरती गोल कर दो श्री दुगड मानते है कि अथक अध्यवसाय, दृढ्सकल्प शक्ति एव निष्कलुष निश्चय से कठिन से कठिन समस्याओ को सुलझाया जा सकता है। धैर्य, सहिष्णुता, ्बन्धपटुता, कार्य दक्षता एव उदारता सेश्री दुगड ने काल के भाल पर, समय की शिला पर जो लेख लिखे है, जो चिन्ह अकित किये हे वे चिरस्थायी ह, अमिट हं ओर दै काल जयी ! कालिकाल गुरु आचार्य हेम चन्द्र के शब्दो मे कहा सकता है- भव तीजाकरुर जनना रागधा, क्षणमुपागत्ा यस्य ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरौ जिनो वा नमस्तस्मै ससार मे विचरण करने, परिभ्रमण करने, पर्यटन करने के कारण जिनके रागादि नष्ट हो गये है, क्षय हौ गये है उसे मै नमन करता हू नमस्कार करता हू प्रणाम करता टू चाहे वे वरद्या हे, विष्णु हो, शिव हो या जिन हो एसे श्री दुगड को हमारा कोटि-कोटि अभिवादन, नमन एव प्रणाम । वे पाच दिन पूर्वं ५ फरवरी २००८ को ५५वे वर्षमे प्रवेश कर चुके है, मोती की काति एव सूरज के तेज से समन्वित यह सुन्दर दीर्घायु हो, स्वस्थ हो, जीवेम, शरद शतम्‌। श्री दुगड का यह अभिनन्दन ग्रन्थ आपको एव सुधी पाठको को समर्पित्त करते हुए अत्यन्त प्रसन्नता है । सपादक मडल के प्रयत्नो का एव सयोजक महोदय की ररणा का प्रतिरूप ই यह अभिनन्दन ग्न्य ।विद्रानो के विचारो से वेष्टित यह ग्रन्थ आपको कैसा लगा, जानकर प्रसनता होगी । मै विद्रानो के प्रति अपनी भूयसी कृतज्ञता ज्ञापित करता ह्‌ इसे सर्वाग सुन्दर बनाने मे श्री पदम वावृ नाहटा, उनके सहयोगी श्री मनोज डागा एव मद्रक तथा प्रकाशक श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा के प्रति केवल आभार प्रकट कर हम अपने कर्तव्य से मुक्त नही हो पायेगे। श्री रिधकरणजी बोधरा तो नीव के पत्थर है रीढहै उनके प्रति आभार प्रकट करना धृष्टता ही कहलायेगी । श्री राधेश्याम मिश्र के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन उनके महत्व को कम करना होगा। आचार्य अमित गति के इस श्लोक से अपनी कलम को विराम दे रहा + ह सत्वेषु मैत्री गुणीषु प्रमोदम, क्लेष्टेषु जीवेषु कृपा परत्व, মাভবজ্য भाव विपरीत वृत्तौ सदाममात्मा विदधातु देवा। भूपराज जैन ৮ -१ अलुपम $-,




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