तीर्थंकर | Teerthankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १६ ) ২৬ ৬৬ से (~ (न পি उसकी सारी दृष्टि से तथा उसके कुछ पुद्दल जेसे विशिष्ट पारिभाषरिक शब्दों में इसी बात की पुष्टि होती है ।” कुछ बातों में समानता देखकर दोनों विचारघाराओं को सवा एक अथवा कुछ भिन्नता देख उनमें भयंकर विरोध की कल्पना गम्भीर विचार की दृष्टि में अनुचित हैं। सदभावना के जागरण-निम्ित्त संस्कृतियों के मध्य ऐक्य के बीजों का अन्वेषण आवश्यक दै जैसे जैनधमं मं छने पानी का उपयोग करना आवश्यक बताया गया है } वैदिक शास्त्र मागवत्त अध्याय १८ में लिखा है कि वानप्रस्थ आश्रमवाला व्यक्ति छुना जल पीता है | कह्य भी है :-- रष्टपुतं न्यसेत्पादं, वश्छपूतं पिवेञ्जलम्‌ । सत्यपूतं वेदेदराचं, मनःपूतं समाव्चेत्‌ ९५. दृष्टि द्वारा भूमिका निरीक्षण करने के उपरान्त गमन करे, वस्त्र से छना हुआ पानी पीवे, सत्य से पुनीत वाणी बोले तथा पवित्र चित्त होकर कायं करे | भागवत में जो संत का स्वरूप कहा गया है, वह অন্তু व्यापक ই। उसमें दि० जैन मुनिराज अंत्तर्मूत हो जाते हैं| कहा भी है :--- सन्तोउनंपेक्षा मच्चित्ताः प्रशान्तः समर्द्शिनः 1 निर्ममा निरहंकारा निदन्द्या नि्रिग्रहा: 0 अध्याय २६, २७ 0 सन्तो को किसी की भी अपेक्षा नहीं रहती है। वे आत्मस्वरूप में मन लगाते हैं। वे प्रशान्त रहते हैं तथा सब में साम्यभाव रखते हैं। वे थ ৬ पर (~. =, ৬৬ ८. =, ४ थ 0 - ममता तथा अहंकार रहित रहते हैं। वे निद्र न्दर रहते ह तथा सवं प्रकारके परिग्रह रहित होते हैं। एेसी पवित्र मायूरं समन्वयात्मक सामग्री को भूलकर समाज में श्रसङ्टन के बीज बोने वाले, संकीरं विचारवाले व्यक्त विद्रे ष-वधक सामग्री उपस्थित्त कर कलह भावना को प्रदीप्त करते द । गाँधी जी ने एसी संकौणं वृत्ति को एक प्रकार का पागलपन ( 10524४४ ) कहा था। उनने सन्‌ १६४७ में अखिल भारतीय कामे कमेटी के समक्त कहा था--




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