दैनिक जैन धर्माचार्य | Denik Jain DharamaCharya

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Denik Jain DharamaCharya by हीरालाल जैन - Heeralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१३ ) स्पाध्याय प्रतिदिन जिनवाणी के शास्त्रों का पढ़ना, पढ़ाना, सुनेनों, सुनाना, पूछना, पाठ करना, चिस्तवत करना, चर्चा करना 'स्वध्थाप' है! स्वाध्याय ज्ञात बढ़ाने का सबसे अच्छा सुगम सावन है । संयम सावधानी तै देख भाल कर कार्य करते हुए जीवों की रक्षा करना तथा अपनी इन्द्रियों को वश करना 'संयम' है। इसके लिमे प्रतिदिन भोजन, पान, वस्त्र, श्राभूपण, वैल देखने, गाना सुनने, काम सेवन करने, सवारो करने झादि का नियम करते रहना चाहिये, कि में भ्राज इतनी बार भोजन करू गा, बहा चर्म से रहेगा या एक बाए विषय रोवन करूँगा, इसने पदार्थ साऊग्रा एक खेल देखूंगा (या नहीं) आ्रादि । तप इच्छाम्रों का रोकना 'तथ' है। इसके लिये भोजन कम क्रना, एकाशन, रसत्याग आदि करते रहना चाहिये। सिनेमा आ्रादि के देशने आदि कौ इच्छाओं को रोकना चाहिये । दान गृहस्थाश्रम में परिग्रह के संचय तथा आरम्भ कार्य से जो पाप संचय हुआ करता है उस पाप भार को हलका करते रहने के लिये तथा लोभ आदि विपयों को कम करने के लिये प्रतिदिन श्राहर, औषधि, अभय (रक्षा) और ज्ञानदान में से यथाग्क्ति धर्म-पातों मुनि झ्रादि को भक्ति के साथ तथा दोन दुखी जीवों को कशशा-भाव से श्रावश्यवत्ानुसार दान करते रहना चाडिये। ` भूते को भोजन, नगे भिखारी को वस्त्र देना, भ्रनाय, विघया दूसी , दन्द्री को शक्ति अनुत्नार सेवा, उक्लर वर्ना (1,




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