विनय पत्रिका | Vinay Patrika
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
197
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)शाप माम दो प्रभाव णानि छूद्टि आगि है ।
सहित सहाय बतिङासत भोद भाषि है ॥आ
राम माम सों बिराप जोग जप जागि है।
थाम विधि भाल हू मं कर्म दाग दापि है 11
৮৫ ग< ৯৫
হ্যা জন্তু राम जपु राप जपु बाबरे।
भोर भव-नीर-निपि नाम निज साय रे ॥
वे राम-मक्तिमेपूर्गेत জীন रहना धाद्तै यै) उनकी कामना पी--
कथहुंक हों धह रहनि रहोंगो +
भी रघुनाथ-पातु हुपा तें सन्त धुभाव गहाँगो ॥
(७) अन्तिम णोवन को प्रकाश में लाने वालो सतामग्री--इस प्रव्रार फ
सामप्रो भी वितयपत्रिका में अधिक नहीं है। जो सकेत मिलते हैं, उन
आपार पर यही कहा जा सकता है कि छुलतो बृद्धावस्था मे मी बहुत दुख
হই ॥ पससार ने उनके प्रति किसी प्रकार की श्रद्धा नहीं दिलाई, अन्यथा उरं
द्वार-द्वार मटकने को बाध्य न होता पडता । उन्होने स्पष्ट लिख! है कि उः
दीन तथा वित्तहीन अवस्था में तथा बिना आश्रय की दगा मे राम की ही ए'
मात्र शरण सूमती थी | अतः वे बार-बार यही प्रार्थती करते थे--
হত নাতি ভাত , হত णाहं कोपसनाय ।
दीन वित्तहीन हों, विकल बिनु डेरे ॥॥
इसीलिए उन्हें विनयपर्रिका लिखनी पड थी। वृद्धावस्था में लिखी ग
उनकी उत्त विनयपत्रिदा कोरमने स्वीकार श्रिया, मौर दष प्रकार
जगज्जाल से मुक्त हुए । डिन््तु यह मुक्ति उन्हें कब मिली, इसका कोई से
विनयपत्रिका में मही मिलता । “सो प्रगंट तप जरजर जराउप्त” सिर के
হলি सक्ति प्रतिहृत” तथा “रटव रटत घटघौ, जातिन्पाति भांति घटपौ/-
জাহি पक्तियों से यह सक्रेव अवश्य मिलता है डि वे बृद्धांवस्था तक जी:
रहे । है
साराश रूप में यही कहां जा सकता है कि विनयपश्रका में तुलसी
जीवन की एक भावात्यकर झांकी हो हमे मिलतों है, ऐतिह्वात्िक विवरण সম
करने वाली पक्तियाँ उपलब्ध नही होती । विनयपरत्निका तो क्या, तुलसी
किसी भी अन्य इति से उतके जीवन का पूर्ण परिक्षय प्राप्त कर सकता »
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