विनय पत्रिका | Vinay Patrika

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शाप माम दो प्रभाव णानि छूद्टि आगि है । सहित सहाय बतिङासत भोद भाषि है ॥आ राम माम सों बिराप जोग जप जागि है। थाम विधि भाल हू मं कर्म दाग दापि है 11 ৮৫ ग< ৯৫ হ্যা জন্তু राम जपु राप जपु बाबरे। भोर भव-नीर-निपि नाम निज साय रे ॥ वे राम-मक्तिमेपूर्गेत জীন रहना धाद्तै यै) उनकी कामना पी-- कथहुंक हों धह रहनि रहोंगो + भी रघुनाथ-पातु हुपा तें सन्त धुभाव गहाँगो ॥ (७) अन्तिम णोवन को प्रकाश में लाने वालो सतामग्री--इस प्रव्रार फ सामप्रो भी वितयपत्रिका में अधिक नहीं है। जो सकेत मिलते हैं, उन आपार पर यही कहा जा सकता है कि छुलतो बृद्धावस्था मे मी बहुत दुख হই ॥ पससार ने उनके प्रति किसी प्रकार की श्रद्धा नहीं दिलाई, अन्यथा उरं द्वार-द्वार मटकने को बाध्य न होता पडता । उन्होने स्पष्ट लिख! है कि उः दीन तथा वित्तहीन अवस्था में तथा बिना आश्रय की दगा मे राम की ही ए' मात्र शरण सूमती थी | अतः वे बार-बार यही प्रार्थती करते थे-- হত নাতি ভাত , হত णाहं कोपसनाय । दीन वित्तहीन हों, विकल बिनु डेरे ॥॥ इसीलिए उन्हें विनयपर्रिका लिखनी पड थी। वृद्धावस्था में लिखी ग उनकी उत्त विनयपत्रिदा कोरमने स्वीकार श्रिया, मौर दष प्रकार जगज्जाल से मुक्त हुए । डिन्‍्तु यह मुक्ति उन्हें कब मिली, इसका कोई से विनयपत्रिका में मही मिलता । “सो प्रगंट तप जरजर जराउप्त” सिर के হলি सक्ति प्रतिहृत” तथा “रटव रटत घटघौ, जातिन्पाति भांति घटपौ/- জাহি पक्तियों से यह सक्रेव अवश्य मिलता है डि वे बृद्धांवस्था तक जी: रहे । है साराश रूप में यही कहां जा सकता है कि विनयपश्रका में तुलसी जीवन की एक भावात्यकर झांकी हो हमे मिलतों है, ऐतिह्वात्िक विवरण সম करने वाली पक्तियाँ उपलब्ध नही होती । विनयपरत्निका तो क्या, तुलसी किसी भी अन्य इति से उतके जीवन का पूर्ण परिक्षय प्राप्त कर सकता »




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