दृष्टान्त सागर [भाग 1] | Drishtant Sagar [Bhag 1]

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Drishtant Sagar [Bhag 1] by चन्द्रिका प्रसाद -Chandrika Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ইউ জীব জী সান २ ६ . १ ~~~“ है और द्वापर में रहती' हूं” उससे मी--/ तू पृथक बैड 1” ऐस। कह कर दीद पुनः अपनी रामघुन में लगधया। कुछ ही खोदने के पश्चोद्‌ एक्र तीसरी स्वी विशौ । दीन ॐ उलक्षे मी वैसे ही प्रश्ष किये | स्त्री मै उत्तर दिया छि- मैं ब्रह्मणी हूँ, मेय नाम कीति है और में अन्तःपुर की निवासिदरी हूँ ।” दीन उसे भी पृथक बैठा भपना कार्य्य करने छगा । 5ुछ ही का * मे पाद्‌ एक मौर चौथी ली निकली । दीने गे उससे भी उसी भांति पूछा । वो ने उतर दिया कि- कि में दाम णी हूं, मेरा नाम धृति है और में सनुआंपुर की निवासिदी हूं । ” इसे भी दौन मे अछूग विठा खोदना आरस्म किया परन्तु -उस बीमारी ने पीछा न छोडा भौर भव खो के शान में एक . विहड़दास हाथ पैर फाडते हये निकटे । दीव ने प्रश्ष किया कि-- आप रूप कोन हैं कहां आपका निवास है !” पुरुष ने 'उत्तर द्या--'मेरी जाति पांति का तो ख धीर नह परन्तु ' हाँ मेण चाम काम है और में नेत्रशाला का निवासी हूं ।” दी- ' मे कहा-बहां तो एक स्त्री जिसका नाम छज्ञा है रहती है. “आमने कहा कि--'वह दो मेरी स्त्री ही है । तव दौन ने कहा' रे हुए, जहाँ लेज्ञा है वहां तेरा क्या काम ?”” ऐसा कह शीघ्र दलवार के द्वारा उसका सिर घड़ से अछग किया भर . पुतः कुंदारी ले खोदने लगा | कुछ ही काल में एक मुस्यएड হাল लाल आँखें किये हैठ फरफराते हुये निकले । दोन मे यह . भयंकर मति देख कर इस से भी वही प्रश्न किया । इन्होने ' बहा, :.''जाति के चाएडाल और हमारा नाम क्रोध और छोर- पर के वासी हैं। दीन ते कहा -- वहां एक হল जिसका जाम दया है, बसती है । क्रोध ने फहा कि--“वह दो मेरी (स्त्री.ही है । ?? तव तो दीन ने कहा कि-- रै दुष्ट, जहां दया” | एहती है बहां षरा क्या काम १५ ठेस कह इन्हें, भी दलवार




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