साहित्य का उद्देश्य | Sahitya Ka Uddeshya

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Sahitya Ka Uddeshya by प्रेमचन्द - Premchand

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प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया। उनक

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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साइत्य का उद्दरय तह नहीं जाती । इमें केवल इतना सोचने से ही सन्ठोप नहीं होठा कि मनोविशन की दृष्टि से सभी पात्र मनुष्यों से मिलते-जुलते हैं; बल्कि इम-यदद इस्मीनान चाहते हैं कि वे सचमुच के मनुष्य हैं, श्रौर लेखक ने यथासम्मव उनका जीवन-चरित्र ही लिखा है क्योंकि कल्पना के गढ़े हुए द्मादमियों में हमारा विश्वास नहीं दे : उनके कार्षों श्वौर विचारों से इम प्रमावित नदीं होते । हमें इसका निरचय दो जाना चाहिये कि लेखक ने जो सृष्टि की है, वह प्रत्यक्ष श्रनुमत्रों के श्राधार पर दी गई है श्रीर श्रपने पात्रों की जवान से वदद खुद वोल रहा दे । इसीलिए, सादिस्य को कुछ समालोचकों ने लेखक का मनोवैज्ञानिक जीवन चरित्र कहा दे । एक ही घटना या स्थिति से सभी मनुष्य समान रूप में प्रभायित नहीं होते । दर श्वादमी ही मनौइतति और दृष्टिकोण श्लग है । रचना कौशल इसी में दे कि लेखक सिख मनोदत्ति या दृष्टिकोण से किसी बात॑ को देखे, पाठक भी उसमें उससे सदमत हो जाय | यद्दी उसकी सफलता दै। इसके साथ ही इम साहित्यकार से यदद मी श्राशा रखते हैं कि घद श्रपनी बहुशता श्वौर श्रपने विचारों की मिस्तृति से इमें लाग्रत करे, इमारी दृष्टि तथा मामसिक परिधि को विस्तृत करे--उसकी इप्टि इतनी सूचम, इतनी गददरी श्रीर इतनी दिस्ठृत दो कि उसकी रचना से हमें छाप्यात्मिक आनन्द श्र बल मिले । सुधार की जिस श्वस्था में व दो, उससे श्रच्छी शध्वस्था ध्ाने की प्रेरणा दर श्यादमी में मौजूद रदती दे । इममें जो कमजोरियाँ हैं वद मर्ज की तर इमसे चिमटी हुई हैं । जैसे शारीरिक स्रास्प्य एक प्राझू- तिक बात दे श्रौर रोग उसझा उज्ञटा उसी तरइ नैतिक श्ौर मानसिक स्वास्प्य मी प्राकृतिक दात दे श्रौर इम मानसिक तया नैतिक गिरादट से उसो तरद शन्तुप्ट नहीं रहते, जैसे कोई रोगी श्रयने रोग से भन्तुष्ट नहीं रदता । जैसे व सदा किष्टी चिकित्सर की तलाश में रदता दे, उसी हरइ इम भी इस फिक्र में रददे हें कि किठी तर अपनी कमजॉरियों




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