ज्यों की त्यों धरी दीन्हीं चदरिया | Jyo Ki Tyo Dhari Dinhi Chadriya
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
125
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
ओशो (मूल नाम रजनीश) (जन्मतः चंद्र मोहन जैन, ११ दिसम्बर १९३१ - १९ जनवरी १९९०), जिन्हें क्रमशः भगवान श्री रजनीश, ओशो रजनीश, या केवल रजनीश के नाम से जाना जाता है, एक भारतीय विचारक, धर्मगुरु और रजनीश आंदोलन के प्रणेता-नेता थे। अपने संपूर्ण जीवनकाल में आचार्य रजनीश को एक विवादास्पद रहस्यदर्शी, गुरु और आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में देखा गया। वे धार्मिक रूढ़िवादिता के बहुत कठोर आलोचक थे, जिसकी वजह से वह बहुत ही जल्दी विवादित हो गए और ताउम्र विवादित ही रहे। १९६० के दशक में उन्होंने पूरे भारत में एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में यात्रा की और वे समाजवाद, महात्मा गाँधी, और हिंदू धार्मिक रूढ़िवाद के प्रखर आलो
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१६ ज्यों की त्यों धरि दीन््हीं चदरिया
जैविक इकाई है, दूसरी जैविक इकाइयों के खिलाफ । समाज, दूसरे समाजों के
खिलाफ सामाजिक इकाई है। राज्य, दूसरे राज्यों के खिलाफ राजनैतिक इकाई
है। यह सच इकाइयाँ हिसा की हैं। मनुष्य उस दिन अहिंसक होगा जिस दिन
मनुप्य निपट व्यक्ति होने को राजी हो। .
इसलिए महावीर को जैन नहीं कहा जा सकता और जो कहते हों वह
महावीर के साथ अन्याय करते है । महावीर किसी समाज के हिस्से नहीं हो सकते।
র্যা को हिन्दू नहीं कहा जा सकता और जीसस को ईसाई कहना निपट पागलपन
है । यह व्यवित हैं, इनकी इकाई यह खुद हैँ । यह किसी दूसरी इकाई के साथ
जुड़ने को राजी नहीं हैं ।
संन्यास समस्त इकाइयों के साथ जुड़ने से इनकार है। असल में संन्यास इस
बात की खबर है कि समाज हिंसा है और समाज के साथ खड़े होने में हिंसक होना
ही पड़ेगा । अपनों का चेहरा भी हिंसा का यूक्ष्मतम रूप है, इसलिए जिसे हम प्रेम
कहते हैं वह भी अहिसा नहीं बन पाता।
अपना जिसे कहते हैं वह भी 'मैं' नहीं हँ। वह भी दूसरा है। अहिंसा उस
क्षण गुरू होगी जिस दिन दूसरा नहीं है। दी अदर इज नॉट'। यह नहीं कि वह
अपना है। वह है ही नहीं । छेकिन यह क्या वात है कि दूसरा, दूसरा दिखाई
पड़ता है। होगा ही दूसरा, तभी दिखाई पड़ता है| नहीं, छेकिन जैसा दिखाई
पड़ता है वैसा हो ही, ऐसा जरूरी नहीं है। अँबेरे में रस्सी भी साँप दिखाई पड़ती
है। रोशनी होने से पता चलता है कि ऐसा नहीं है। खाली आँखों से देखने पर
पत्थर ठोस दिखाई पड़ता है। विज्ञान की गहरी आँखों से देखते पर ठोसपन विदा
हो जाता है। पत्थर सब्स्टेन्शिअछ नहीं रह जाता। असल में पत्थर पत्थर ही नहीं
रह जाता। पत्थर मटीरियल ही नहीं रह जाता। पत्थर पदार्थ ही नहीं रह जाता,
रिफ एनर्जी रह जाता। नहीं, जैसा दिखाई पड़ता है वैसा ही नहीं है । जैसा दिखाई
गड्ता है बह हमारे देखने की क्षमता की सिर्फ सूचना है। सिर्फ दूसरा है, इसलिए
दिलाई पड़ता है। नहीं, दूसरे को दिखाई पड़ने का कारण दूसरे का होना नहीं
है । दूसरे का दिखाई पड़ने का कारण बहुत्त अद्मुत है। उसे उमझ छेना जरूरी है।
उसे बिना रामसे हम हिसा की गहराई को न समझ सकेंगे ।
दूसरा इसलिए दिखाई पड़ता है कि में अमी नहीं ह। यह शायद ख्याल में
नी आयेगा ग्दम से। में नहीं हें, म॒झे मरा कोई पत्ता नहीं ह, इरा मरे नहाने
का, दस मेरे पता न होने को, इस मेरे आत्म अज्नान को मैने दूसरे का ज्ञान बना
না र. द्य को देख रहे हैं, क्यों कि हम अपने को देखना नहीं जानते। और देखना
ता पदगा हा] देखने की दो संभावनाएं है या तो बह अदर डायरेलटेड हो,
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