स्वयंभू एवं तुलसी के नारी पात्र | Swayanbh And Tulsi Ke Naari Patra

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Swayanbh And Tulsi Ke Naari Patra by योगेन्द्रनाथ शर्मा - YogendraNath Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श स्वयभ्‌ एवं तुलसी के भारी-पाण पुराणनिगमागमसम्मत' होने के कारण ही वे ऐसे भाव-अ्रदर्शन से स्वय को रोक नही सके हैं 3 डॉ० माताप्रसाद गुप्त का कथन हमे पूर्वाग्रह से युक्त प्रतीत होता है। ये सम्भवत्त तारी-जायरण' का पक्ष लेकर प्रगतिशील बनना चाहते थे, जो उनके हन शब्दों से ध्वनित भी होता है--किसी भी नारी-पात्र से यदि कही कोई भूल हो जाती है तो हमारे कवि के अनुसार सारी नारी जाति उसके लिए भत्संना का पात्र बन जाती है, और पुरुष पात्र चाहे कितने अपराध करे, पुरुष जाति की भत्संना हमारा कविं कभी नहीं करता ।* क्या 'मानस' का कोई अध्येता इस कथन से सहमत होगा ? महापण्डित, महा- प्रतापी, सस्कृतज्ञ रावण का पराभव, महामति, प्रतापी तथा महाबली बाली का पराभव, क्या डों० गुप्त के कथन को एकपक्षीय सिद्ध नही कर देता ? हमारा मन्तव्य यहाँ केवल यह दिखाना ही है कि तुलसी को जिस दृष्टिकोण से देखा गया, विशेषत नारी-चित्रण के सन्दर्भ मे, वह प्राय पूर्वाग्रहयुक्तं भौर एकागी रहा है और उसमे शुद्ध विवेचन, ताफिकता तथा विश्लेषण का प्राय अभाव रहा है । महाकवि स्वयभूदेव के कृतित्व को स्वीकृत तो अवण्य किया गया जौर आज उन्हे गौरव भी दिया गया है 21906৬10008 01700100855 04509৫91018 200 56৬679] 06106, 9852777017015 1081706 5187065 10 006 2006 18110 017 4১058 010180088-09615 800 501)01275 प्र [06६०8] ०7165, 800 6916০1811% 115 10 ৮0170111911 90105 6681118 91101) 016 08119015৩01 २8719 370 01 {1८ ९५६५8 ०० {76718 980 68106 7) (106 01161151860 प्ल ग 71915919851 271 4.11. किन्तु उनके कृतित्व का पूणं मूल्याकन अभी होना शेष है। स्वयभूदेव कृत पउमचरिउ' का अध्ययन कतिपय विद्रानो ने तुलसी कृत रामचरितमानस के तुलनात्मक सन्दर्भ में किया है । इस ग्रन्थ मे हमारा उद्देश्य स्वयभूदेव कृत 'पउमचरिउठ' तथा तुलसी कृत “रामचरितमानस' के समस्त नारी-पात्रो--प्रधान एवं गौण--का स्वतन्तर तथा तुलनात्मक स्वरूप स्पष्ट करना प्रमुखत रहा है । स्वयभ्रदेव तथा तुलसीदास मे लगभग आठ सौ वर्षो का अन्तर स्पष्टत दै, जिसने समाज, धर्म, सस्कृति, परम्परा तथा मृत्यो के विषयमे इन दोनो कबियो के दृष्टि- कोण को पर्याप्त भिन्‍नता प्रदान की है । यो तो दोनो ही राम के पावन चरित्र को लैकर काव्य-रचना मे प्रत्त हुए है तथापि भाव, भाषा, शैली तथा युगीन-परिवेश ন হুল दोनो को स्वतन्त्र अस्तित्वं एव महत्त्व प्रदान कर दिया है । 1 रामचरितमानस का तुलनात्मक अध्ययन, पृ० ४०६। 2 तुलसीदास, पु० ३०७ । ) डॉ० एच्‌० सी० भायाणी, पउमचरिड (विद्याधरकाण्ड), पृ० १।




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