शेष स्मृतियाँ | Shesh Smritiyan

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Shesh Smritiyan by रघुबीरसिंह - Raghubir Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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আক স্‌ শপ रूप प्राप्त करती है। कल्पना के इस स्वरूप की सत्यमूलक सजीवता का श्रन्‌ - भव करके ही संस्कृत के पुराने कवि श्रपने सहाकाव्य और नाटक किसी इतिहास- प्राण के वत्त का आधार ले कर ही रचा करते थे। सत्य से याँ श्रभिप्राय केवल वस्तुतः घटित वृत्त ही नहीं निशचयात्म- कता से प्रतीत वत्त भी है। जो बात इतिहासो में प्रसिद्ध चली श्रा रहीहं वह यदि प्रमाणों से पुष्ट भी न हो तो भी लोगों के विश्वास के बल पर उक्त प्रकार को स्मृति-स्वरूपा कल्पना का श्राधार हो जाती है। श्रावश्यक होता है इस बात का पूर्ण विश्वास कि इस प्रकार की घटना इस स्थल पर हुई थी! यदि एेसा विहवास कुष्ठं विरुद्ध प्रमाण उपस्थित होने पर विचलित हो जायगा तो इस रूप की कल्पना न जगेगी । दूसरी बात ध्यान देने की यह हैं कि श्राप्त वचन या इतिहास के संकेत पर चलने वाली मत्तं भावना भी श्रनुमान का सहारा लेती हं । कभी कभी तो शुद्ध श्रनुमिति हौ मूत्त भावना का परिचालन करती हं । यदि किसी अ्रपरिचित प्रदेश में भी किसी विस्तृत खंडहर पर हम जा बढठे तो इस अ्रनमान के बल पर ही कि यहाँ कभी श्रच्छी बस्ती थी, हम प्रत्यभिज्ञान के ढंग पर इस प्रकार की कल्पना में प्रवत्त हो जाते हे कि यह वही स्थल हं जहां कभी प्राने मित्रों की मंडली जमती थी, रमणियों का हास-विलास होता था, बालकों का क्रीड़ा-कलरव सुनाई पड़ता था इत्यादि। कहने की श्रावश्यकता नहीं कि प्रत्यभिज्ञान-स्वरूपा यह कोरी शअनुमानाश्चित कल्पना भी सत्यमल होती हं । वत्तंमान समाज का चित्र सामने लाने वाले उपन्यास भी श्रनूमानाभित होने कै कारण सत्यम्‌ल होते हं । हमारे लिए व्यक्त सत्य हु जगत्‌ श्रौर जीवन ) इन्हीं के श्रन्तभूत रूप- व्यापार हमारे हृदय पर मामिक प्रभाव डालकर हमारे भावों का प्रवर्तन करते हूं; इन्हों रूप-व्यापारों के भीतर हम भगवान्‌ की कला का साक्षात्कार करते ह्‌, इन्हीं का सूत्र पकड़ कर हमारी भावना भगवान्‌ तक पहुंचती हं । जगत्‌ श्रीर जीवन के ये रूप-ग्यापार श्रनन्त हँ । कल्पना हारा उपस्थित कोर रूप-व्यापार जब इनके मेल मं होता हं तब इन्हीं में से एक प्रतीत होता हे, ग्रतः एसा काग्य सत्य के श्रन्तर्गत होता हं । उसौ का गंभीर प्रभाव पडता हं । वही हमारे ममं का स्पशे करता ह । कल्पना की जो कोरी उड़ान इस प्रकार सत्य




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