धर्मसुधाकर | Dharmsudhakar

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Dharmsudhakar by श्री स्वामी दयानन्द - Shri Swami Dayanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० धर्म छुधाकर ॥ ৬ शांखमें प्रसिद्ध है कि महर्षि विश्यामितने दुर्मित्तपोड़ित होकर भवानम भच्चणका भी उद्योग किया था, किरतु भावशुद्धि रहनेसे आपत्कालमे अड॒प्ठित इस फर्मीके दांश पांपग्रस्त नहों हुए थे। जो व्यक्ति झत्युकों है उचित्त समभता है उसके लिये ऊपर उक्त दशार्मे यय्यपि मण्जाना हो अच्छा है और खधम्म चोड़ना उचित नही है परन्त जो शाती व्यक्ति ऐसा समभाता हो कि मेरे लिये मरना ढीक नहीं है, मेय यदि शरीर रहेगा तो मैं अन्‍्यान्य पुएय- »फर्मले इल पापकर्म का शुद्ध कर लूँगा और क्रमशा आध्यात्मिक उन्नति करके अम्मेजगत्‌र्म चढ़ सकंगा उसके लिये। आपत्कालमें चादे जिस प्रकारसे हो शरोरको बचा लेगा द्वी धर्मे होगा । विश्वामित्रजीनि इसी वैज्ञानिक सिया- न्तकों छत्त्यमें श्वकर ही ,श्वानमांलभक्षणका निःसंक्रोच उद्योग किया था और इसीलिये पापाचरण करते हुए भी भावशुद्धिके कारण पापभागी महीं हुये थे । ।... धर्मके तीन विभागोका चर्णव करके अब चतुर्थ घिभाग अर्थात्‌ लाधारण धर्मका वर्णन किया जाता है। साधारण धर्म सर्वहितकर है क्योंकि इसके ७२ अह्ञ तथा अनन्त उपाह्ञमेसे फिसी न फिसीफोी सद्यायतासे भ्रतिभेदानुसार समी मरुष्य चल सकते हैँ। श्व नीचे इसके ৩২ স্কারীক্ষা चरणन किया जाता है । स्यघारण॒ धर्मके प्रधान झज्ट तौन हैं, यथा दान, तय और यक्ष। यथा चेदर्ने-- हे ग मत वेदानुवचनेन प्राह्मणा विविदिपन्ति यश्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन । (बृहदारएयके षष्ठे चतः ब्राह्मणम्‌ ) \ “यत्नो दानं तयेव पोथनानि पनीपिणाम्‌ ।”! ( गीता १८५) ऐसा गीतामें भी कहा है। इन तीनों अज्भमेंसे दानधर्म सब प्रकारके अधिकारियोंके लिये सयसे भ्रथम और फलियुगर्म परम सद्दायक है। अपनी चस्ठुको अपना सम्पन्ध इटाकर दूसरेको दे देनेका नाम दान है। स्मरण रहे कि दे देगा तो सहज है परन्तु दी हुई घस्तुसे अपना सम्बन्ध चित्तले हटाना अत्यन्त हो कठिन दै इस कारण जो दाता झपनी दान को हुई वस्तुसे जितना




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