प्रवचन-प्रकाश | Pravachan Prakash

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Pravachan Prakash  by पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ - Pandit Chainsukhdas Nyayteerth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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{9 )} 1০ झारमों के विषय में वह मत-विभिन्नतां बसलाने का केवल इतना ही प्रयोजन हैं कि भव तक मनुष्य इसे संबंध में कमी एक मत नहीं हुआ; भले ही इसका कारशा उसका ग्रांग्रह ही वा प्रशात । सब मिलाकर यदि हम मानव कत्यादा की दृष्टि से प्रात्मा का विश्लेषण या विवेचन करें तो यहू मानना ही प्रधिकर उपयुक्त भ्ौर प्रशस्त है कि आत्मा अवादि, भनन्त एवं नष्ट नहीं होनेवाला पदार्थं है । शरीर बदलने पर भो बेह्‌ नदीं बदलता ठीक ऐसे ही जैसे कपड़ा बदलने पर भी मनुष्य | झ्रात्मा न जलाया जा सकता है, व छिन्नश्रिन्न किया जा सकता है, न सुखाया जा सकता है और त गीला किया ज़ा सकता है। उसमे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि कुछ भी नहीं हैं। बौद्धों के प्रतिरिक्त इस मान्यता का समथेन सारे उपनिषद, गीता, सारा जैन बाइमय, सांख्य, नेयायिक, वेशेषिक, पातंजल, मादर, प्राभाकर पौर वेदान्त दर्शन करता है! किन्तु जरूरत इस बात की है कि इसे केवल भ्रपने २ भ्रागमो के प्राधार पर ही नहीं, दलीलों एवं तकोँ से भी सिद्ध किया जाना चाहिए जिससे सामान्य मानस को दिगू-विश्वम न हो! भ्ात्मा को भ्रमर मानने वाले सभी दर्शनों का यह पुनीत कर्तव्य है कि वे सब एक होकर श्रात्मा' के अमरत्व को सिद्ध करने के लिए कश्टिबद्ध होजावें। यह काम करते के लिए साच सन्तो को सबसे प्रागे श्राना चार्हिए । धम~-- प्रात्मा के बाद हस संकलन में दूसरा क्रम धम को दिया गया है! घर्म के विषय में भी कौर दर्शन या संप्रदाय एक मत नहीं है । भ्रधिकाश्च संप्रदाय बाह्य क्रिया- काण्ड को ही धर्म मानते हैं। नहाना, धोना, किसी की छूसा न छूना श्रादि बाह्याचार में धर्म को इतना उलझा दिया है कि उसका वास्तविक स्वरूप गौण या हृष्ठि-से बिल्कुल ही श्रोभल होगया है। भ्राश्चर्य श्रौर खेद की बात तो यह है कि श्रपने देवी देवताशों के सामने बकरे, भैंसे, मेड भ्रादि पशुओं एवं छुर्गे ग्रादि पक्षियों का बलिदान करंना भी धर्म मान लिया गया है । बहुत से भोले नाई बहिन तो भ्रपनी संतान को मारकर अपने इध्ट देवता के सामने অন্তা देना मी धर्मं समभते है । यह सव प्रंन्‍्ध विश्वास तो है ही, एक भयंकर पापाचार भी है। इस बौद्धिक युग में भी कमौ २ इस श्रकार के समाचार सोर्वजनिक पत्रों में पढ़कर बहुत॑ ही बेदना होती है । रूढ़ियों का संस्कार मनुष्य के मत पर इस तरह जम्र जाता हैं कि ছু योंही दूर नहीं हो सकता । उसे दूर करने के लिए घोर प्रयत्न की जरूरत है । ' -




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