विश्वभारती पत्रिका | Vishvbharti Patrika
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
112
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)खुसरू-हिन्दी और परम्परा १८९
है, उस समय ये सभी बातें स्पष्ट रूप से उसके सामने थीं। इन दृष्टियों से ब्रज तथा
खड़ी बोलियों में कोई विशेष भेद नही था! आज जिसे हम उद् भाषा के नाम से
पुकारते हे, उसके मूल में हिन्दी की अधिकांश विशेषताएं ज्यों को त्थों हे। समास के
स्थान पर अत्फ और इजाफत और कारफ चिह्धों के लिये दर और अज का प्रयोग
तथा अरबी-फारसी दाब्दाबलो का सहारा लेकर भी हिन्दी के आधारभूत रूप से बह
छुटकारा नहीं पा सकी और जिसके कारण हारकर इकबाल को अन्ततोगत्वा उसे त्यागकर
फारसी ही अपनानी पडी। खुसरू ने इसकी सहज प्रकृति को समझा और उसने किसौ
भाषा का निर्माण नहीं किया बरं (उसके ही दाब्दों मे) प्राचीन काल से प्रचलित इसी
हिन्दी का प्रयोग किया और उसकी प्रवत्ति का अनुसरण । अवश्य ही यह नाम उसके
सधर्मियों का ही दिया हुआ था, जिसे उसने स्वीकार करके व्यवहार किया तया उसके
वाद भी कम से कम लीन शती तक्ष दक्षिण में उसके सधर्म लोग इसे इसी नाम से
पुकारते रहे ।
उसकी प्रकृति और प्रवृत्ति के दर्शन जिस रूप मं उसने किये, उसने अनुभव किया
कि उसमें सिलाबट की गजाइश नहीं। शब्दों की सिलावट यदि हुई भी तो उसो के
रूप मे ढालकर अन्यथा वह भाषा नहीं रह जाएगी। जिस समय उसने मिलावट की
बातें की उस समय उसके सम्मुख केवल शब्दावलों ही नहीं, लिपि भी थी। क्योंकि
दोनो ही अवस्था में उसके बिकृत होने की आशंका उसे मौ थौ! उसने यह अनुभव
किया कि उसकी प्रव॒त्ति का मूल यहाँ की मिट्टी मे है, जिससे उसे बिलग नहीं किया
जा सकता। यही कारण है कि जत्र उसने फारसी ओर हिन्दी की ब्रातं की, वह् भावना
के प्रवाह से बह गया। क्योकि फारसौ उन सभी बालों का प्रतोक थी जो विदेक्षी थीं।
उसके सामने इन दोनों के साथ ही देशी और विदेशों प्रबृत्तियों का एक संघर्षमय रूप
खड़ा हो गया था।
यदि हम इन उक्तिथों में गहरे पेठने की चेष्टा करे तो संघर्ष का यह स्वरूप स्पष्ट
हो जाता है। बहू जिन सुल्तानो और सामन्तों का অল কষা के द्वारा अनुरंजन करने
को चेष्टा करता था, वे विदेशियों कौ सन्तान ये। अपने मूल स्थानो ओौर भाषाओ से
भावनात्मक रूप से संलग्न थे। वे भाषाएं जपने मूल स्थान कौ परस्पराओ, मान्यताओ
और भौगोलिक परिवेशों से विच्छिन्न नहों हो सकती थों। उन्हें इनका मोह था।
अतएवं, इसके रहते हुए वे न तो इस स्थान के साथ आत्मोयता का अनुभव कर सकते
थे और न उस विदेशीपन से ही मुक्त हो सकते थे। वाद-विवाद-चर्चाओं सें यहा को
वस्तुओं की वे निन्दा करते थे और अरब-फारस-तुर्कों के स्थानों तथा वस्तुओं की प्रशंसा ।
उनका द्वारीर तो यहाँ था किन्तु उनकी अन्तरात्मा वहीं बसतो यौ जहाँ से वे अथवा
उनके पूवज यहां आये ये।
उन्हीं के सदृक्ष एक विदेशी कौ ही सन्तान होते हए भौ सुखरू कौ मानसिक स्थिति
इनसे भिन्न थी। उसे उनके ये भाव, उनकी ये बातें और उनका यह रुख रुचता न
था। इसमें सन््देह नहीं कि उसी राजनंतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेद्र में उसने
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