समालोचक [भाग २] [अगस्त १९०३] [अंक १] | Samalochak [ Part 2] [August 1903] [No. 1]
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
18 MB
कुल पष्ठ :
466
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)অহা | ९४
, अकार क्ते अलेष्ठ मन घ्य दौ गये हैं जिनन््हो ने उक्त ठयसूनों सें
छी यकर अपन? जीवन वित दिया है! उक्र सिन्न नो
इसी तरह के सनष्य ये | षन का जीवन केवल िद्याठयद-
साय से हो ठ्यतौत हुख है । इस व्यवसाय से छाक्तर सित्र
फी হল उन्तति हुईं कि इनके समय में उतनी सिख
अड़ली को नही हुझे | प्ऩारतबर्ष और विखायत छे पठिन
समाज -मे ठेस कोर स्थान नहीं है जहा डाष्छर भित्र र
लास परिचित न हो | यह् सद इनके विद्यामीरवसे हीं
इञा है । भारतवर्षोय ऐत्तिहामिक व्यक्तियों में इस का
সজল লা था | न दो अनन्तर बकुदेश में क्या प्ररतचप
रमे कोद भारसवर्षीय प्रातत्ववेत्ता नछी हुआ | जो
दो चरर हैं वे इन के ससकालीन छही दह सीर अव निज र
ग्रहों लें वास करते हैं | मित्र की जीवनी बहुत वी है उन
का लिखना इस समय नहो छोपसकतः, तीफो सक्षेप से कुछ
दत्त लिखते हैं।- वि
डारूर सिनत्र का जन्म कलकत्ता सें सन् ९८२४ देंसदी
से छुआ था| बालकाल में बाबू क्षेत्रथीष को पाठशाला में
उपर गोखिस्द् विक रो परशका में जच्ययनं करना भर
रस्म किय । इन ॐ साथी दुर्गाचरण ला ये | कुछ दिनों
बाद छाक्तर सिन्र पढ़ने में बहुत तेज निकले और खूब चित्त
लगाकर पाठ्यालीय হু জী বল चिद्या हरली । गुरुजी
तव ऊीर लोग डाफक्तर भिन्न को रछ्ने लगे कि यछ बालक
अवश्य फोड स्वनासचन्य पुरुष होगा ! ईश्वर नै खव
वाक्यो को सफछ किया, जनन्त मे डश्क्तर मित्र वैसे पी हुए !
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