मानव जीवन का महाकर्त्तव्य सम्यग्दर्शन | Maanav Jeewan Ka Mahakartavya Samyagdarshan

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Maanav Jeewan Ka Mahakartavya Samyagdarshan by नेमीचन्द वाकलीवाल - Nemichand Vaaklival

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भगवान श्री कुन्दकुद-कटहान जैन शाखस्रमाला ५ होनेवाला है दोनों द्रव्य त्रिकाल भिन्न हैं। जीव यदि अपने स्वरूपकों यथाथे समभना चाहे तो वह्‌ पुरुपा्थके द्वारा अल्पकालमे सम सकता है । जीव अपने स्वरूपको जव समना चाहे तव सम सकता है, स्वरूप के सममनेमें अनन्त काल नदीं लगता, इसलिये यथार्थं सम सुलभ है । यथाथ जान प्राप्त करनेकी रुचिके अभावसें हयै जीव अनादि काल से अपने स्वरूपको नहीं समभ पाया इसलिये आत्मस्वरूप सममनेकी रुचि करो और ज्ञान आम करो | 9. द्रव्यदरष्टिकी महिमा জী লীহ जीव एकवार भी द्रव्यरृष्टि धारण कर लेता है उसे अवश्य सोक्षकी भाप्तरि होती है। (१) द्रव्यदृष्टिमें भव नहीं।---आत्मा वस्तु है | वस्तुका मतलब है-- सामथ्यप्ते परिपूर्ण, त्रिकालमें एकरूप अवस्थित रहनेवाला द्वज्य। इस द्रव्यका वर्तमान तो सर्वदा उपस्थित है ही | अब यदि वह्‌ वर्तमान किसी निमिताधीन है तो सममली कि विकार है अर्थात्‌ संसार है। और यदि बह वर्तमान स्वाश्रय स्थित है, तो द्वव्यमें विकार न होनेसे पर्योयर्में भी विकार नहीं है अर्थात्‌ वही मोक्ष है। दृष्टिने जिस द्रव्यको लक्ष्य किया है उख द्रव्यमें भव या भवका भाव नहीं है इसलिये उस द्रव्यको लक्षित करनेबाली अवस्था्ें सी भव या भवका भाव नहीं है । यदि आत्मा अपनी वर्तमान अवस्थाको “रस्वलक्ष्यःः से হইল धारण कर रहा है तो वह विकारी है । लेकिन फिर भी वह विकार मत्र एक समय ( ्षण॒ ) पर्यन्त द्धी रदनेवाला है, नित्य द्रव्यमें चद्ध विकार नहीं है | इस वास्ते नित्य-त्रिकालवर्ती द्रव्यको लक्ष्य करके जो वतमान अवस्था होती है उसमें कमीपना या विकार नहीं है। और जहद्दां कमीपना श्रा विकार नहीं है वहाँ सबका भाव नहीं है। और भवका भाव नहीं, इसलिये अव मी नदीं है । इसलिये द्रव्य र्वभावसें भव न होने से द्रव्य स्वभावकी दृष्टियें भवका अभाव ही द। अर्थोत्त्‌ द्रव्यदष्टि सवको स्वीकारती नदीं है ।




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