आत्मानुशासन | Atmanushasan
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
374
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६ 9)
3 . , श
जिस शरीरम পু कालकी अनिवाये गतिकां - ,,
पट्टा बांधा - जावा है वह , | द ` ८
| ,.“ ८८
शरीए कैसा ई! ५२ | दूसरा दृष्टांत ९०
धन सुखका साधन नहीं है ७४ | अचानक आजानेवाले काल
रागट्वेप हूट जानेपर रं
मात्र भा दूसरे सुखके
साधन न होनेपर भी साधु
जनाके असीम सुखो रहने
का कारण ; ५५
परिचयाथ জাগি गुण ७६ | है
जो अपनेको साधु पताकरं
लोगोंको ठाते हैं वे साधु
ने सममने चाहिये
तपश्वरणादि काय 8 श सह-
কক ঘা শীর্ণ? ঘন
साधनभूत शरीरकी तो
रत्ता करना उचित है इसका
उत्तर ८०
আনু कायादिकोंका:
नश्वर सभाव ८१
जीते या भरते सुख.कभी
नहीं है রঃ ८४
আদর ভুইলা असंभव `
श्नीर जीनेकी सणिकवा , .
मदुप्य्ठी . र्ताका, शेना
७८
असंभव है = ४५ +,» ८६.
से सावधान रहनेका उपदेश . ९१ ,
स्ीकी श्रनुपसेव्यता . ९३
शरीरकी क्षणिकता पृष्ट
करते ।
উল भ्ात्म-द्वित होता'
यानीं ***,
धंधुजनों द्वारा जो विवाद्यादि
उपकार होते हैं उन्हें अपकार
सिद्ध करते हैं। * ९९
वंघुजन जव किं धनकी ,
मदद करते हैं, तो वे युए
के कार्ण इए दुःख
कारण कैसे दो सकते हैं
इस भ्रमकों हटाते हैं. १००.
युवावश्थामें विषयनसुख भोग- ` `
कर वृद्धावस्थामे धमे साधते
की इच्छा रखनेवाढेसे कहते
শশা १०१
९७
९८
विपयोंमें न फैंसकर पर-
, | माथ अवृत्ति करमेबालोकी
^| दरल॑मता
१०३ `
पीये दुः १०६;
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