त्रिलोक्य दीपिका (संग्रहणी सूत्र) | Trilokya Deepika (sangrahni Sutra)
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
194
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १९ )
, इंद्र चैंद्रमा-वे सूये प्रत्येक के चार् चार अग्रमीहेषी हैं तथा: सौ-
धपं वे इशान इन्द् करसयाकेदो इद्र के प्रसेक के आठ आठ
अग्रमहिपी हैं: दूसरें देवलोक से उपर देवी की उत्पात्ति नहीं
होती हे, किंतु सनत्कृपारादिदेवलोक के इंद्र तथा देवों. को जब
विपय वांछना होती हैं तव सोधर्म-व इंशान देवलोक হী অ
परिग्द्दीता देवियों से दश॒योग्य रीति से उपभोग कहते हैं, अतः
वहां अग्रमीहपी का अभाव है,
पहिले वेंमानिक देवों की श्रायुस्थिति समुचय सेक्टर
अब प्रत्यक प्रतर ऋ पृथक्र् २ श्चायु स्थते कदी जायगा आर
उसके लिय प्रथम प्रतर संख्या कहते हें;
द्खु तरस दुष बरस ॥ च षष चड चर
द्ग दगेय चठ + गावज्ज হাহ হন ॥ विस्रा
पयरा उवारलाए ॥ १४ ॥
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भावाथ।-मभिप्त प्रकार परम उपराउपरी मंजिल हाती रं
५१ ৮ ष्पे ¢
उसी प्रकारं देवछोक में भी उपराउपरी प्रतंर होते हैं, सॉँधमे
आर इशान देवलोक के मिले हुए तेरह 'प्रतर गोलाकार ৪,
. उनमें से प्रत्येक प्रतर के दरतिणाद्धं खड साधर्मन््र के दं आर्
৭৬ ১৯০
उत्तराद्धं खढ इंशानेन्द्र के: हैं। दोनों देवलोक- के मिले हुए तरह
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