श्रीमद्भगवद्गीता | Shrimadbhagwadgeeta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ভীত ६॥ - श्रीमद्धगवदरीतां २५१५६ फिर है भगवन्‌ ! तुमने जो सुभे अध्यात्म, अधिभूत औरे अधियज्ञका उपदेश किया ( देखो अ० ८ ) तथा देवयान ओर पितृथान इलादि मार्गोका उपदेश किया (देखो अ० ८ श्लो० २४ से ३६ तक) औौर' है भगवन्‌ ! जो तुमने मुभे गुह्मतम राजविद्याका उपदेश किया ( देखो' अआ० ६ ) रि है सगवन्‌ | मेर इस प्रशनपर, कि ^“ बेक्तु- महंस्यशेपेण दिव्या ह्यात्मविभृतयः” तुम अपनी विमूतियोंक्ी मुझे' पृणैरूपसे कहे तिके उत्तरम तुमने “ अहमात्मा गुडाकेश ?' से “ विष्टभ्याहमिदं कृत्नम ?” ( अ० १० श्लो० २० से ४२ तक ) इत्यादि बचनोंतक अपनी दिव्य विभृतियोंका उपदेश किया | अब भर्जुन कहता है, कि [ माहात्म्यमपि चाव्ययम्‌ ] तुमने अपने अव्यय माहात्यको अर्थात्‌ अक्षय महा ऐश्वय्योंका वर्णन किया है सो मेंने विस्तारपृवेक श्रवण किया । शंका-- भगवानूने तो श्रपने मुखारविन्दसे कहा है, कि हे अर्जुन ] मैंने अपने महान देश्व्थोो तुकसे झत्यन्त संज्षिप्तकरके कहा है क्योकि भगवान्‌ अ० १० के अन्तम अजुनसे कहचुके « एष तुदेशतः प्रोक्तः ” ८ अ« १० श्लो० ४० ) अर्थात्‌ मैंनें अपनी विभूतियेकि विस्तारके कारण संक्षेपकरके तुकसे कहा और इस श्लोकमें अर्जुन कहता है, कि “श्रुत्तो विस्तरशो मया? मैंने विस्तारपूव क सुना। तोकहनेवाला कहता है, कि मने संदोपसे कहा श्नौर सुनने वाला ` कंहता है, कि मैंने विस्तारस सुना ये दोनों बातें परस्पर टकशती . हैं और इनसे गीताशास्में अन्योन्य विरोधका दोष लगता है ऐसा क्यों ?




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