मूर्तिमंडन | Murtimandan
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
88
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ९ )
आप लोग पक्षपात को छोड़कर ध्यान देंगे तो भूर्तिपूजा से
कदाचिद भी द्र नहीं होसक्ते ॥ भछा एक वात में आपसे
ओर पूछता हूँ कि नित्त स्यान मल्ली की सूतिं हो व्रह्मचारी
साधु वहां रहें वा न रहें !
हंढिया-कदाचिद भी वहां न रहें, क्योंकि जेनसत्रों
में लिखा है कि जिस स्पान पर स्त्री की सूर्ति हो वहां पर साधु
न ठहरें इस बात को हम लोग भी मानते हैं ॥
मन्जी-अब आप तनक ध्यान तो दें कि सूत्रों में निषेध
क्यों लिखा है ॥
৬ শব +अक
“विना प्रयोजनं मन्दोऽपि न प्रवत्तते
अर्थात् मूख भी तिना प्रयोजन कोई काम नहीं करता
तो फिर यत्रों में तो सर्वज्ञों का ज्ञान है क्यों निषेध किया है !
हुँढिया-रत्रों में इसलिये निषेध किया है कि वार२ জী
की मूर्ति की ओर देखने से बुरे भाव उत्तन्न होते हैं ॥
मन्त्री-जों फिर क्या बवीतराग परमात्मा की मूर्ति
देखने से श॒द्धभाव नहीं उत्पन्न होंगे ! क्यों नहीं अवश्य ही
उत्पन्न होंगे ! इसलिय ही सूत्रों में निषेध किया है. कि निस्त
दीवार অহ জী কী मूरति हो साधु वा ब्रह्मचारी उसको न
देखे | जैसे यूय्य को देखकर अपनी दृष्टि पीछे हठा ली जाती
है, इसी प्रकार ही मुनि अपनी दृष्टि पीठे संचरे, क्योकि
दीगार पर स्री की मूर्ति को देखकर साक्षाव उस स्त्री का
জে क क ২১
स्मरण होता हे जिस की वह मूर्ति है ॥
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