प्रज्ञानसूत्रं - 3 | Pragyanasutram Volume III

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Pragyanasutram Volume III by विभिन्न लेखक - Various Authors

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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परम्परा की दृष्टि से श्राचा्यं श्याम की अधिक प्रसिद्धि निगोद-व्याख्याता के रूप में रही है। एक बार भगवान्‌ सीमंधर से महाविदेह क्षेत्र म शक्रे ने सूष्ष्मनिगोद की विशिष्ट व्याख्या सुनी । उन्होंने जिज्ञासा स्तुत की क्या भगवन्‌ ! भरतक्षेत्र में भी तिगोद सम्बन्धी इस प्रकार कौ व्याख्या करने वाले कोई श्रमण, भावाय ध्रौर उपाध्याय हैं ? भगवान्‌ सोमंधर ने श्राचायं शयाम का नाम प्रस्तुत किया । वद्ध ब्राह्मण के रूप में शक्र नदर भ्राचायं शयाम के पास श्राय । भ्राचायं कै ज्ञानबल का परीक्षण करने के लिए उन्होंने श्रपना हाथ उनके सामने किया । हस्तरेखा के श्राधार पर ध्राचायं श्याम ने देखा-- वृद्ध ब्राह्मण की श्राव पल्योपम से भी श्रधिक है। उनकी गम्भीर दृष्टि उन पर उठी और कहा--तुम मानव नहीं, भ्रपितु शक्र हौ । থালীল্্র নী श्राचायं प्याम के प्रस्तुत उत्तर से संतोष प्राप्त हुआ । उन्होंने निगोद के सम्बन्ध में श्रपनी जिज्ञासा रखी । भ्राचायं श्याम नै निगोद का सूक्ष्म विवेचन और विश्लेषण कर शक्रन्द्र को प्राश्चर्याभिभूत कर दिया । सौधर्मेच्द्र ने कहा--जैसा मेने भगवान्‌ सीमंधर से निगोद का विवेचन सुना, वैसा ही विवेचन श्रापके मूखारविन्द से सुनकर मैं श्रत्यन्त प्रभावित हुआ हूँ । देव की भ्रदुभुत रूपसम्पदा को देखकर कोई शिष्य निदान न कर ले, इस दृष्टि से भिक्षाचर्या & प्रवत्त मुनिमण्डल के भ्रागमन से पहले ही शक्र न्द्र श्यामाचार्य की प्रशंसा करता हुआ जाने के लिए उद्यत हो गया । ज्ञान के साथ अहं न श्राये, यहं श्रसम्भव है । महाबली, विशिष्ट साधक बाहुवली श्रौर कामविजेता शरायं स्थूलभद्र मे भी श्रहुकार श्रा गया या, वैसे हौ श्यामाचायं भी भ्रहंकार से ग्रसित हौ गये । उन्होने कहा-- तुम्हारे श्रागमन के वाद मेरे शिष्य विना किसी सांकेतिक चिक्न के किस प्रकार जान पायेंगे ? आचार्यदेव के संकेत से शक्र न्द्र ने उपाश्रय का द्वार पूर्वाभिमुख से पश्चिमाभिमुख कर दिया | जब आ्चाये श्याम के शिष्य भिक्षा लेकर लौटे तो द्वार को विपरीत दिशा में देखकर विस्मित हुए। इन्द्र के श्रांगमन की अस्तुत घटना प्रभावकचरित में कालकसूरि प्रवन्ध में श्राचाय कालक के साथ दी है। विशेषावश्यकभाष्य, श्रावश्यकचूणि प्रभृति ग्रन्‍्थों में श्रायं रक्षित के साथ यह घटना दी गई है । परम्परा की दृष्टि से निगोद की व्याख्या करने वाले कालक और श्याम ये दोनों एक ही आचार्य हैं, क्योंकि कालक और एयाम ये दोनों शब्द एकार्थक हैं। परम्परा की दृष्टि से वीरनिर्वाण ३३४ में वे युगप्रधान भ्राचायं हुए श्रौर ३७६ तक जीवित रहै । यदि प्रज्ञापना उन्हीं कालकाचायं की रचना है तो वीरनिर्वाण ३३५ से ३७६ के मध्य की रचना है। भ्राधुनिक श्रनुसंधान से यह सिद्ध है कि नियुक्ति के पश्चात्‌ प्रज्ञापना की रचना हुई है । नन्दीसूत्र मे जो श्रागम~सूची दी गई है, उसमे प्रज्ञापना का उल्लेख है । नन्दीसूत्र विक्रम संवत्‌ ५२३ के पूं की रचना है । भ्रतः इसके साय प्रज्ञापना के उक्त समय का विरोध नहीं । प्रलापना श्रीर षट्खण्डागम : एक तुलना भरागमग्रभाकर पुण्यविजयजी भ. एवं पं. दलसुख मालवणिया ने 'पन्‍नवणासुत्तं ग्रेन्थ की प्रस्तावना में ्रज्ञापनासूत्र और षट्खण्डागम कौ विस्तृत तुलना दी है} हम यहाँ उसी का संक्षेप में सारांश अपनी दृष्टि से प्रस्तुत कर रहे हैं । | - ्रजञापनां श्वेताम्बरपरम्परा का श्रागम है तो पट्खण्डागम दविगम्बरपरम्परा की भ्राम है । प्रज्ञापना के रचयिता दशपूर्वधर श्यामाचायं हँ तो पट्खण्डायम के रचयिता श्राचायं पुष्पदन्त श्रौर आचार्य भूतवलि हैं । दिगम्बर विद्वान्‌ पट्खण्डागम की रचना का काल विक्रम की प्रथम शताब्दी मानते हैं। यह ग्रन्थ छह खण्डों [१७ ]




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