उपासकदशांग सूत्र | Upasakadashang Sutra
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
274
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अग-साहित्य
गणधरो द्वारा भगवान् का उपदेग निम्नाकित वारह् अगो के रूप मे संग्रथित इमा -
६ आचार, २ सूत्रकृत्, ३ स्थान, ४ समवाय, ५ व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६ नातृधर्मकथा,
४ उपासकदणा, ८ अन्तकृहशा, ९ अनुत्तरोपपातिकदशा, १० प्रश्नव्याकरण, १ १ विपाक,
१२ दृष्टिवाद |
. प्राचीनकाल मे शास्व-नान को कण्ठस्य रखने की परम्परा थी । वेद, पिटक और आगम--
ये तीनो ही कण्ठस्थ-परम्परा से चलते रहे उस समय लोगो की स्मरणशक्ति, देहिक सहनन, बल
उत्कृष्ट था ।
आगम-सकलन ; प्रथम प्रयास
भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग ५६० वषं पश्चात् तक आगम-ज्ञान की परम्परा
यथावत् रूप मे गतिगील रही । उसके वाद एक विघ्न हुआ । मगध में बारह वर्ष का दुष्काल पडा ।
यह चन्द्रभुप्त मौर्य के शासन-काल की घटना है ! जैन श्रमण इधर-उधर विखर गये । श्रनेक काल-
कवलित हो गये ! जन सघ को श्रागम-ज्ञान की सुरक्षा की चिन्ता हई । दुभिक्ष समाप्त होने पर
पाटलिपुत्र मे आगमो को व्यवस्थित करने हेतु स्थुलभद्ग के नेतृत्व मे जैन साधुओ का एक सम्मेलन
आयोजित हुआ । इसमे ग्यारह अगो का सकलन किया गया । बारह॒वा अग दृष्टिवाद किसी को भी
स्मरण नही था । दृष्टिवाद के ज्ञाता केवल भद्रवाहु थे । वे उस समय नेपाल में महाप्राणध्यान की
साधना मे लगे हुए थे । उनसे वह् ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया गया । दृष्टिवाद के चवदह पूर्वो
मे से दम पूर्वं तकं का भ्र्थं सहित ज्ञान स्यूलभद्र प्राप्त कर सके । चार पूर्वो का केवल पाठ उन्हे प्राप्त
हुआ ।
आगमो के सकलन का यह पहला प्रयास था । इसे आगमो की प्रथम वाचना या पाटलिपुत्र-
वाचना कहा जाता है ।
यो आगमो का सकलन तो कर लिया गया पर उन्हे सुरक्षित वनाये रखने का क्रम वही
कण्ठाग्रता का ही रहा । यहाँ यह नातव्य है कि वेद जहाँ व्याकरणनिष्ठ सस्कृत मे निबद्ध थे, जेन
ग्रागम लोक-भापा मे निमिततये, जो व्याकरण के कठिन नियमो से नही वन्धी थी, इसलिए अआानेवाले
समय के साथ-साथ उनमे भाषा की दृष्टि से कुछ-कुछ परिवर्तन भी स्थान पाने लगा । वेदो मे एसा
सम्भव नहीं हो सका । इसका एक कारण और था, वेदो की शब्द-रचना को यथावत् रूप मे बनाये
रखने के लिए उनमें पाठ के सहितापाठ, पदपाठ, क्रमपाठ, जठापाठ तथा घनपाठ--ये पाँच रूप रखे
गये, जिनके कारण किसी भी मन्त्र का एक भी शब्द इधर से उधर नहीं हो सकता । आगमो के साथ
ऐसी बात सम्भव नही थी ।
द्वितीय प्रयास
भगवान् महावीर के निर्वाण के ८२७-८४० वषं के मध्य ्रागमो को सुव्यवस्थित करने का
एक और प्रयत्न हुआ । उस समय भी पहले जैसा एक भयानक दुष्काल पडा था, जिसमे भिक्षा न
मिलने के कारण अनेक जैन मुनि परलोकवासी हो गये। आगमो के अभ्यास का क्रम यथावत् रूप
मे चालू नही रहा । इसलिए वे विस्मृत होने लगे । दुर्भिक्ष समाप्त होने पर आर्य स्कन्दिल के नेतृत्व
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