अपराजितेश्वर शतक | Aparajiteshwar Shatak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ड | कि--रत्नाकर को वचपन में ही संसार भोगों से घृणा हो जाने से वेराग्य हो गया था । बिह्चत्ता तो उसमे अपूर्वे थी ही-भीयोगिराज चारुकीति महाराज' से ब्रत दीक्षा लेकर योगाभ्यास मे आप लग गये। अनेक शिष्य हो गये, जिन्हें आप निरंतर पढाया भी करते थे। योगाभ्यास और पिहत्ता में आपकी वडी भारी ख्याति होगई जिससे २-४ लोगों को ईर्ष्या भी हो गई । इन धरया लोगों ने रत्नाकरजी को गिराने के लिए उनके सोने ॐ तस्ते ॐ नीचे एक ठिन एक वेश्या को लाकेए सुता दिया । फलत रत्नाकर का वड़ा मारी अपमान क्रिया रत्नाकर को उन दुर $ सगं से वड़ी ति हुई और उस स्थान से वे चेज्त रयि । उनको मनाया भी बहुत गया परन्तु र्नाकर ने कहा कि मुभे इन दुष्टो के ससगै मे रहना ही नहीं है। वे दुष्ट भी जेन ही थे। रत्नाकर ने क्र द्व॒ हो, जेन धमं को भी वाद्यरूपम से छोड दिया) उसी समय वं एक राजा ने एक शैव भन्थ का हाथी पर जुलूस निकाला था परन्तु उस शेव সন্থ फो रत्नाकर ने पटकर कहा कि ऽसमे कोई एस नहीं, यह खबर राजा तक भी पहुँच गई और रनाकर से बुला एर कहा कि यदि यह प्रन्थ नीरस है. तो ठुम कोई सरस ग्न्थ वना एर पुन्यो । तव रत्नाकर ने भरतेशवैमव की रचना कर राजा को से सुनाया । भरतेशवेभव काव्य से राजा तथा संमी वड २ बिद्रान्‌ अत्यन्त प्रपन्न हये । रत्नाकर फवि का पूणं सत्कार किया श्रौर तेगायत शैव वन जाने को कहा | राजा के आग्रह से शेष लिंग मती होना इस शत से स्वीकार किया किं जव मेरा देहान हो तो




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