जैन शिलालेख संग्रह | Jain Shilalekh Sangrah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना श्‌ न्वय इन छह परम्पराओंके उल्लेख विस्तारसे मिलते हैं। इनका अब क्रमश: विवरण प्रस्तुत करेंगे। (आ १) सेनगण--इसका प्राचीनतम उल्लेख सन्‌ ८२१ का है ( क्र० ५५ )। इस लेखमें इसे चतुष्टय मुलसंघका उदयान्वय सेनसंघ” कहा हैं। इसकी आचार्यपरम्परा मल्लवादी-सुमति पृज्यपाद-अपराजित इस प्रकार थी छेखके समय गुजरातके राष्ट्रकूट शासक ककराज सुवर्णवर्पने अपराजित गुरुको कुछ दान दिया था । सेनगणके तीन उपभेद थे - पोगरि अथवा होगरि गच्छ, पुस्तक गच्छ, एवं चन्द्रकवाट अन्वय । पोगरि गच्छका पहला लेख (क्र० ६१) सन्‌ ८९३ का हैँ तथा उसमें विनयसेनके शिष्य कनकसेनकों कुछ दान दिये जानेका उल्लेख हैँ । इस लेखमें इसे मूलसंघ-सेनान्‍नवयका पोगरियगण कहा है। दूपरा लेक्ष (क्र० १३४) सन्‌ १०४७ का हैं तथा इसमें नागसेन पण्डितकों सेनगण-होगरि गच्छके आचार्य कहा हूँ। इन्दुं चालृक्य राज्ञ अक्करादेवीने कुछ दान दिया था। चन्द्रकवाट अन्वयका पहला लेख ( क्र° १३८ ) सन्‌ १०५३ १. पहले संग्रहमें डल्लिखित देवगणका कोई ভ इस संग्रहमें नहीं है। पहले संग्रहमें मुलसंघके प्राचीन उद्केख ( क्र० ६०, ९४ ) चवीं सदीके देँ । तथा उनमें गण आदिका उक्छेख नहीं है । २. पहले संग्रह सेनगणका प्राचीनतम उद्केख सन्‌ ९०३ का हैं (क्र० १३७ )। इसे देखकर डॉ० चौधरीने कढ्पना की थी कि आदिपुराणकर्ता जिनसेन ही सेनयणके प्रवर्तंक होंगे ( तीसरा भाग प्रस्तावना ° ४४ ) किन्तु प्रस्तुत छेखसे जिनसेनके गुरु वीरसेनके समय्रमें ही सेनलंबचकी परम्पराका अस्तित्व प्रमाणित होता है । वीरसेनने घवराटीकाकी रचना सन्‌ ८१६ में पूर्ण की थी । ३. पहले संग्रह पोगरिगच्छके चार उल्लेख सन्‌ १०४५ से १२७१ तक के आये हैं। (क्र० १८६,२१७,१८९,५११)




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