जैन शिलालेख संग्रह | Jain Shilalekh Sangrah
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
574
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावना श्
न्वय इन छह परम्पराओंके उल्लेख विस्तारसे मिलते हैं। इनका अब
क्रमश: विवरण प्रस्तुत करेंगे।
(आ १) सेनगण--इसका प्राचीनतम उल्लेख सन् ८२१ का है
( क्र० ५५ )। इस लेखमें इसे चतुष्टय मुलसंघका उदयान्वय सेनसंघ” कहा
हैं। इसकी आचार्यपरम्परा मल्लवादी-सुमति पृज्यपाद-अपराजित इस
प्रकार थी छेखके समय गुजरातके राष्ट्रकूट शासक ककराज सुवर्णवर्पने
अपराजित गुरुको कुछ दान दिया था ।
सेनगणके तीन उपभेद थे - पोगरि अथवा होगरि गच्छ, पुस्तक
गच्छ, एवं चन्द्रकवाट अन्वय । पोगरि गच्छका पहला लेख (क्र० ६१)
सन् ८९३ का हैँ तथा उसमें विनयसेनके शिष्य कनकसेनकों कुछ दान
दिये जानेका उल्लेख हैँ । इस लेखमें इसे मूलसंघ-सेनान्नवयका पोगरियगण
कहा है। दूपरा लेक्ष (क्र० १३४) सन् १०४७ का हैं तथा इसमें नागसेन
पण्डितकों सेनगण-होगरि गच्छके आचार्य कहा हूँ। इन्दुं चालृक्य राज्ञ
अक्करादेवीने कुछ दान दिया था।
चन्द्रकवाट अन्वयका पहला लेख ( क्र° १३८ ) सन् १०५३
१. पहले संग्रहमें डल्लिखित देवगणका कोई ভ इस संग्रहमें नहीं
है। पहले संग्रहमें मुलसंघके प्राचीन उद्केख ( क्र० ६०, ९४ )
चवीं सदीके देँ । तथा उनमें गण आदिका उक्छेख नहीं है ।
२. पहले संग्रह सेनगणका प्राचीनतम उद्केख सन् ९०३ का हैं
(क्र० १३७ )। इसे देखकर डॉ० चौधरीने कढ्पना की थी कि
आदिपुराणकर्ता जिनसेन ही सेनयणके प्रवर्तंक होंगे ( तीसरा भाग
प्रस्तावना ° ४४ ) किन्तु प्रस्तुत छेखसे जिनसेनके गुरु वीरसेनके
समय्रमें ही सेनलंबचकी परम्पराका अस्तित्व प्रमाणित होता है ।
वीरसेनने घवराटीकाकी रचना सन् ८१६ में पूर्ण की थी ।
३. पहले संग्रह पोगरिगच्छके चार उल्लेख सन् १०४५ से १२७१
तक के आये हैं। (क्र० १८६,२१७,१८९,५११)
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