सेनापति कृत कवित्त रत्नाकर | Senapati Krit Kavitt Ratnakar

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Senapati Krit Kavitt Ratnakar by धीरेन्द्र वर्मा - Dheerendra Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिकां काम भूप सोव॑त सो जागत है” कह कर वय:संधि को बड़ी ही उत्तमतां से व्यंजित किया गया दहै, साथ दही प्रभात के रूपक के विचार से भी वह नितांत उपयुक्त है। 'खंडिता! के बरणुनों में कुछ कवियों ने महावर आदि के वर्णन के साथ - साथ दन्त-क्षत, नख-क्ञृत आदि का वर्णन भी बड़े समारोह के साथ किया है । सेनापति ने भी एक कवित्त में ऐसी ही तत्कालीन अभिरुचि का परिचय दिया है- | बिन हीं जिरह, हथियार यिन ताके अब, भूलि मति जाह सेनापति समभाए हौ । करि डरी छाती घोर घाइन सौं राती-राती . मोहि धौ बतावौ कौन भाँति छूटि आए हो ॥ पौढ़ो बलि सेज, करों औषद की रेज वेगि, में तुम जियत पुरबिले पुन्य पाए हौ। कीने कौन दाल ! बह बाधिनि दै बाल ! ताहि ` कोसति हं लाल जिन फारि फारि खाए हौ ॥ कहाँ तो शगार रस के आ्ंबन भिभाव का वणन ओर कहौ 'वाधिनिः तथा मल्दम-पद्ै की चचाँ ! वचन-वक्रता बड़ सुन्दर होती है, कितु बह “फारि फारि खाए बिना भी प्रदर्धित कीं जा सकती थी । खंडिता के अन्य उदाहरणों में अधिक सहृदयता- से काम लिया गया है। 'नचन-विद्गधा' के वशेन मे कभी कभी व्यंजना से अपूर्वा सहायता मिलती दै, पर सेनापति ने इसके वर्णन में प्रायः श्लेषालंकार से सहायता ली है। इसके कुछ उदाहरण पहली तरंग में पाए जाते हैं। और उनमें शाव्दिक कीड़ा की ही प्रधानता पाई जाती है। किसी किसी छंद में 'अश्लीलत्व” दोष भी आ गया है। “अश्लीत्नत्व! के संबंध में यह कह देना अप्रासंगिक न होगा कि वह . सेनापति के »ह गार वर्णन! में बहुत-कम पाया जादा है। वह केवल पहली तरंग में . दी कतिपय स्थलों पर देखा जाता दै । कवि वहाँ पर श्लेष लिखने में तत्पर # दूसरी तरंग हंद ६९ । | पहली तरंग, छंद ७१, ७, ८१ । [ ९1 २




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